Saturday, August 24, 2013

काल / महाकाल या न्यूज़ काल …… !!!
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हम न्यूज़ काल में जीते हुए मर रहे हैं
हम कारतूस काल को पहचान रहे हैं
हम मर्दानगी के आनंद से लहुलुहान हैं

हमारी भीतरी दीवारों में घुटन है
हमारी भीतरी दीवारें घायल हैं
हमारा ऑपरेशन किया जा रहा है 

हम जिन्दा हैं सिर्फ
चिड़ियों की आवाजों में
मोमबत्तियों की जलती लौ में
चीखते नारों और कलात्मक तस्वीरों में।

आम लड़की ,
छात्रा ,
पत्रकार ,
पुलिस कॉन्स्टेबल ,
…… ………
……………………
…………………………

है कोई नया काल ?
वीरता काल ?
क्या छाया काल ?
रीति काल ? या
न्याय काल ??

या फिर हमारे लिए
सिर्फ काल
महाकाल / न्यूज़ काल
पीड़ा काल !!
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कंचन
मर्द की उम्र ………. क्या है…?
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मर्द की उम्र क्या है ?

छह साल 
सोलह साल 
बाईस साल 
चालीस साल 
चौसठ साल 

कैसे बना मर्द 
किसने बनाया 
कहाँ सीखी मर्दानगी 
किसने सिखाया यह सब 

 मैं भी जानता हूँ मर्द की उम्र 
 मैं छह साल का हूँ 
 मुझे पता है कि
 लड़के-लड़कियों से 
 ज्यादा अच्छे होते हैं 
 लड़के बहादुर होते है 
 इंटेलिजेंट होते हैं 

'कक्षा एक ' की कहानी में सुना है 
चिड़ी मूर्ख है,चिड़ा बुद्धिमान है 
'कक्षा दो ' की कविता में पढ़ा है 
माँ का काम खाना बनाना है 

मैं नन्हा मुन्ना राही हूँ 
देश का सिपाही हूँ 
मैं बॉय हूँ , ब्रेव बॉय। 

मैं पहचानता हूँ इसे 
मैं सोलह साल का हूँ 
मैं जानता हूँ कि लड़की 
के सामने कैसे हीरो बनते हैं
गाने,फ़िल्में और दोस्त सब बताते हैं  
 दोस्तों को वैसा सब कुछ करते देखा हैं  
जो न साथ दे अगर तो उस पर हँसते हैं  

मैं बाईस साल का हूँ 
जानता हूँ कि 
लड़की सेक्स सिम्बल है 
एन्जॉय मटेरियल है 
कानून कुछ नहीं कर पाता 
जानने वाले चुप रहते हैं और
 मर्द की खासियत को पहचानते हैं
दबी चुप्पी में इसे मर्दानी जरूरत मानते हैं 

मैं नहीं हम सब जानते हैं 
उसकी उम्र को …………. 

 काफी कुछ पहचान तो 
 उसे भी है इसकी जिसकी उम्र
 मात्र साढ़े तीन साल की है 
 वह जानती हूँ कि 
 सुन्दर कैसे बनते हैं 
चूड़ी ,लिपस्टिक और 
बाल खुले रखकर 
जैसे मेरी मैम आती हैं 
जैसे मेरी माँ डरती है पिता से 
वैसे ही मैं डर जाती हूँ भाई से।  
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कंचन

Friday, August 16, 2013

टूटन ,…उसकी ! 
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आज वह अपने आँसू पोंछती 
मेरे पास जमानत के रुपयों का 
इंतजाम करने रात के अँधेरे में 
भरोसा किये चली आई थी 

हर सुबह हँसती आती थी वह 
आज देर रात तक ज़ार-ज़ार 
रोये जा रही थी बिना रुके 

पति खून से लथपथ 
 पड़ा था हॉस्पिटल में 
बेटे ने  पीटा था उसे 
लोहे की रॉड से सबके सामने 

 दिन भर काम करती ,थकती 
 और रात को पीकर आया नशेड़ी पति
 जवान बेटे के सामने ही माँ को 
अपना माल समझ उसकी टांगो से लिपटा
 उसके कपड़े खींचे,नोचे और फाड़े जा रहा था 

"इतना तो साथ चलने वाला
 ग्यारह वर्षीय भाई भी समझता था 
 उसने चाचा के सिर पर 
 सड़क पर पड़े पत्थर को दे मारा था 
 जब वह उसकी आठ साल की बहन 
 की सलवार उसी के सामने खींच रहा था 
 तब गाँव की बात थी तो थाना पुलिस नहीं हुआ था 
 आज पड़ोसी ने पुलिस को फोन कर दिया था 
 जब नासपीटा रोज हड्डियाँ तोड़ता था मेरी 
 तब कोई नहीं बुला के बचाता था मुझे 
 आज बेटे ने माँ की लुटती आबरू बचायी 
 तो पुलिस उठा ले गयी उसे "

जवान लड़का भूल गया उस वक्त रिश्ता 
मर्द की हवस को पहचान रहा था 
पूरी ताकत से माँ का क़र्ज़ और 
भाई के फ़र्ज़ को निभा गया 

आज उसकी बारी थी तो 
अब तक निभाती आयी अपने 
हाड़-तोड़ पत्नी फ़र्ज़ को भूलने चली 
वह सिर्फ़ माँ होकर सामने खड़ी थी 
अपने बेटे की ज़मानत के रुपयों के लिए 

भूल चुकी थी अपना औरत होना 
जितना पिटती थी हर रात 
उतनी ही तेजी से घिसती थी
 हर सुबह सबके बर्तन और फ़र्श 

उसकी हँसी से गूँज उठता मेरा फ़र्श !!!
 किसको भनक थी कि यह उसकी  
 फ़र्श से अर्श तक की 
 हर रोज़ की गूँजती टूटन थी 

आज अगर कहूँ कि आदमी 
अक्सर कुत्ता बनकर ही 
अपनी असलियत दिखाता है 
तो न जाने क्या -क्या 
स्त्रियों के लिए कहा गया 
मेरे सामने रख दिया जाएगा ……

हमेशा टांगों पर ही टूटते है दोनों 
एक मांस खींचता ,एक सलवार 
शायद दोनों ही मांस नोचते !!

 वह आज सिमटी पड़ी थी मेरी बाहों में 
 जो हर रोज़ बिखरी थी अपने आस-पास। 
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कंचन 

Friday, August 9, 2013

तुम बोलकर देखो जरा !……………… 
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 मेहँदी लगे हाथों की सुन्दरता पर
 रीझ जाने वाले प्यारे सलीम !

 हैरान हूँ , कभी खिले बदन को
 देखता था जो देर तक, नज़र पार 
 आज अनारकली के कुर्ते के 
 टूटे बटन और सहमे बदन को 
 नज़रंदाज़ करता जाता लगातार
 वही कोरमा, बिरियानी के स्वाद पर
 नंबर देता उसे आठ छह पाँच चार

 जो दुनिया से नज़रे मिलाने में 
 कभी अकेले हिचकिचाई नहीं 
 आज तुम्हारी माँ की उंगलियों 
 के स्वाद के सामने सहमी खड़ी है

 अपनी माँ का स्वाद उसने 
 तुम्हारी मोहब्बत में भुला दिया  
 अपनी हासिल डिग्रियों का इम्तहान 
 दोबारा परीक्षा की कसौटी पर रख दिया 
 तुम्हारी पसंद के स्वाद पर कसते हुए
 बार -बार, लगातार …… प्यारे सलीम। 

  तुम्हारी जीभ के स्वाद का इम्तहान,
  दिन-रात उसके वजूद को हल्दी के रंग में
  मसाले की गंध से लपेटे हुए बहकाता है
 
   जिन हाथों में किताबें खुलती थीं 
   वहाँ अब करछुल धँसकर सजता है 
   ईद,तीज की हँसती मेहँदी को मिटाते हुए 
   सिर्फ एक कसम का सिक्का रंग जमाता है 
   
     जाना कि तुम्हारी जीभ की लम्बाई तो 
     उसके वजूद से कहीं ज्यादा लम्बी है  
     तुम्हारे वालिद को दी गयी कसम 
     के हवाले से वह तुम्हारी जीभ में 
     धँसती है दिन में तीन बार हर रोज़।
     
     तुम बोलकर देखो जरा !
     उसकी आवाज गमकती है 
     तुम्हारे शब्दों के धागों पर 
     वह मोती बनकर लटकती है।   
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    कंचन  


 

Friday, August 2, 2013



जब कहा था तुमने ………. !
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 जब तुमने कहा उनसे
 मैं दामाद नहीं बनना चाहता  
 बेटी के साथ आपका बेटा बनूँगा 
 आपके बुढ़ापे का सहारा बनूँगा 
 उनकी आँखें चमक उठी थीं 
 जो पहले गुस्से से लाल थीं ,
 पहले वे प्रेम के खिलाफ थे.... 

जब तुमने थोड़ा पास आकर 
कहा 'अपने लिए जियो '
उसकी घुटन को समझा और 
उसे खुली हवा में साँस लेने दिया 
वह डूबकर ,टूटकर, मरकर चाहने लगी तुम्हें ,
पहले नफरत थी उसे आशिक मिज़ाज लड़कों से। 

तुम अच्छी भाषा बोल रहे थे 
उसके कान निहाल हो रहे थे 
तुम्हारे हाथ और होंठ उसकी 
बाँहों में पिघलकर नये हो रहे थे
तुम और वह दोनों  आश्वस्त थे 
जब तुम दोनों एक साथ प्रेम में थे 
तुम्हारे रंग के कपड़े पहने उसने 
और तुम्हारी पसंद का स्वाद चखा। 

फिर यह प्रेम का खासमखास रंग 
और मस्त-मदहोश हवा बदलने लगी 
खुली हवाओं में जीती वह लड़की 
अब तुम्हारी शान के कब्जे में एक 
जानी पहचानी जकड़न से जूझ रही थी।

लड़की को मालूम हो चुका था 
ताजी हवा का रास्ता और
तुम्हारी ओढ़ी लपेटी भाषा का राज
 तुमने छला था, उसने नहीं माना था ऐसा 
उसे मालूम हो चुकीं थीं तुम्हारी खाल की परतें 

 वह अब पहचानती थी,
 ताजी हवा में बहता अपना वज़ूद
 उसे याद था तुमसे सुना जुमला "अपने लिए जियो "
 वह जी रही थी अकेले तुम्हारी भाषा के साथ ,लेकिन 
उसका परिवार अभी भी अर्थ खोजने में लगा था

वे जो प्रेम के खिलाफ थे 
उनकी आँखे गर्म और लाल नहीं ,नम थीं अब …. । 
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कंचन 
 

Thursday, August 1, 2013

नहीं , तुम ना नहीं कह सकती , लड़की !
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तुम ना नहीं कह सकती , लड़की !
अगर कहा ,तो.………………. 

तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े किये जायेंगे 
तुम्हें एसिड से जलाया,गलाया जायेगा ,
तुम्हारे हाथ की नसें काट दी जायेंगी,
तुम्हें जलती लपटों में झोंका जायेगा,
तुम्हें बेल्ट से पीटा जायेगा , 
तुम्हें जबरदस्ती पकड़कर 
मुँह में सल्फास खिलाया जायेगा 

तुम्हें सोलह दिसंबर की रात की 
दिल्ली की सड़क की चलती बस 
बार -बार याद रखनी होगी ,
तुम्हें जुलाई के आखिरी दिन की
जे एन यू के क्लास -रूम में बहते खून 
और पीछे बैठे सहपाठी को याद रखना होगा 
तुम्हें खूबसूरत लॉन में फूल को नहीं 
खून में सनी लाल कुल्हाड़ी को याद रखना होगा 

लड़की ! 
अगर तुम्हें जिन्दा रहना है तो 
यह सब याद रखना होगा ……।
  
लड़के ने हमेशा याद रखा है यह सब
अपने भीतर और बाहर की दुनिया में 
मर्दानगी और काबिज सत्ता के लिए।
उसने हमेशा पिता को और अन्य पुरुषों 
की शान स्त्री की "हाँ "में देखी है.….…

पुरुष और स्त्री दोनों का जीवन
स्त्री की "हाँ "में है 
लड़के/लड़की  ने हमेशा देखा और सीखा है -
स्त्री की "ना " का अर्थ -उसकी मौत.…….  !!!

मैंने कहीं पढ़ा है कि  बच्चे कान से नहीं आँख से सुनते हैं….
यही देखती हूँ आस -पास के बच्चों में ,
बच्चे पढ़कर नहीं देखकर जानते हैं 
व्यवहार और कहन का अंतर।  

बच्चे कैसे देखें कि परिवार में ,समाज में ,
साथ पढ़ने वाली लड़कियों से,
सड़क पर चलने वाली लड़कियों से  
कैसे बदलाव का, मनुष्य होने का व्यवहार किया जाए ???

आखिर लडकियों से कैसे अच्छा व्यवहार करें 
सड़क पर चलें और उन्हें देखें नहीं 
राह चलते किसी को छेड़े नहीं 
फिकरे कसें , पटायें नहीं 
तो जवानी कैसे जियें ,लड़के …?
कोई और तरीका देखा नहीं उस उम्र में व्यवहार का…

लड़की की "हाँ"  पर अपने अधिकार का 
जन्मसिद्ध अधिकार देखता ,सीखता और जीता है लड़का 
लड़की की 'हाँ ' के बिना मरने और मारने का संस्कार है लड़का 

घर में, बाहर सड़क पर ,रिसेप्शन पर , और कक्षा में 
अगर कोई पुरुष ,लड़का 'ना  ' सुनकर चुप रहेगा तो 
वह मर्द नहीं माना जायेगा , लतियाया और लताड़ा जायेगा 
 
लड़की की 'हाँ' और पटाने का नुस्खा नया लड़का 
अपने आस-पास और अगली फिल्म में पा लेता है
लेकिन लड़की की 'ना ' पर 
लड़की के सिर के टुकड़े -टुकड़े करने का
पुराना आदिम रिवाज़ गाँव ,नगर हर  जगह 
घर और सड़क पर मौजूद है।  

लड़की ,तुम्हारे हाथ -पांव तोड़ दिए जायेंगे 
ट्रेन से नीचे फेंक दिया जायेगा 
मुँह पर एसिड फेंका जायेगा 
हर वक्त जानलेवा धमकी और 
माँ की हिदायत का फोन आयेगा

लेकिन लड़के /लड़कियों तुम्हें 
इस ना और हा के फेर से
निकलना होगा साथ -साथ 
जीना होगा साथ -साथ ….…
 
कहो ! कि तुम इंसान हो। 
जल्लादों को शर्मसार करो 
उनके संस्कारों को ,व्यवस्था को 
एक साथ मिलकर "ना " कहो 
उन्हें अपने नये होने का अर्थ बता दो 
तुम आदिम नहीं ,तुम पढ़े लिखे हो 

तुम इंसान हो
इंसान रहो 
तुम प्रेम करो 
तुम नये होकर 
तुम साथ -साथ जियो 

आओ! हम साथ-साथ मरने
की कसम को पुराना करें 
सावन के महीने में खून से लाल नहीं 
मन के हरे होने के दस्तूर को जियें 

हमें जीता हुआ देखो 
मरते हुए जल्लादों !!!

मेरे बच्चों !
तुम्हें हमेशा जिन्दा प्रेम कथाएँ मिलेंगी 
मेरा वादा है.……. 
तुम भी ट्रेजिक नहीं 
जीता हुआ प्रेम लिखना   
यह मरने और मारने का
पुराना आशिकाना आदर्श  
बदलना होगा ………

तुम्हारा आसमान साफ़ और सतरंगी रहेगा 
सावन के महीने में हरी रहेगी तुम्हारी धरती।  
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कंचन 

Wednesday, July 31, 2013

मेरी आँख का सपना ,जो jnu से मिला … 
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            जिसने भी बचपन से ही यह देखा है कि लड़कियों ,स्त्रियों को किसी भी  बात पर मारा या जान से मारा जा सकता है और लड़की पर पुरुष का पूर्ण अधिकार होता ही है। साथ पढ़ते हुए भी ,प्रेम करते हुए भी …….. । परिवार में ,सड़क पर ,और फिल्मों में सब जगह जिसने वोईलेंस अगेंस्ट वीमेन देखा हो , वह अठारह बीस साल की उम्र के बाद एक डेमोक्रेटिक माहौल के कैंपस में जाकर क्या अचानक जादू की हवा से बदल जायेगा। हाँ यह होगा कि वह खुले आम उस माहौल के खिलाफ नहीं जा पायेगा और चोला ओढ़ेगा। लड़के जानते होंगे कि जब शुरुआत में वे जे एन यू में आते हैं तो उन्हें कई बार अपनी आदतन मानसिकता को मारने के लिए जूझना पड़ता है.। कईयों ने सुना होगा कि  … अगर यह जे एन यू न होता तो इस लड़की को अभी सबक सिखा देता या कई बार तो उन्हें अपनी जुबान पर काबू करने में भी मुश्किल होती है। धीरे -धीरे  उन्हें अपने पुराने संस्कार जेब में ठूँसकर कैंपस की भाषा बोलने की आदत पड़ने लगती है और वे संवेदनशील बौद्धिक बन जाते हैं। य़ह बनने की पूरी प्रक्रिया है। कोई इसमें फेल हो जाता है तो उसका संस्कार जेब से निकलकर हावी हो जाता है। और इस हद तक हावी  हो जाता है कि लड़का ,लड़की की हत्या तक कर देता है। यह जे एन यू में पहले कभी हुआ नहीं लेकिन gscash तो पहले से है और है तो शिकायतें भी होंगी।  
       अत्यंत दुखद है आज की यह घटना कि जे एन यू में बी.ए तृतीय वर्ष का एक छात्र अपने ही साथ पढने वाली एक लड़की के ऊपर कुल्हाड़ी से जानलेवा हमला कर देता है और फिर खुद भी नशीला पदार्थ खाकर और कुल्हाड़ी से अपने भी गले पर वार करके अपनी भी जान ले लेता है। लड़का मर गया है लड़की गंभीर हालत में भर्ती है।
                यह विस्मयकारी है लोगों के लिए कि जो जे एन यू लोगों को राह दिखाने वाला अनूठा कैंपस है आज वहीं ऐसी भयावह घटना हुयी है। शिक्षा के सबसे उच्च शिखर पर गिना जाने वाला जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के क्लास रूम की गरिमा पर कुठाराघात हुआ है। जिस जगह पर संवेदनशीलता का पाठ पढ़ाया जाता है वहीं पर एक लड़के के हाथों से एक लड़की का खून बहा। 
           यह उस कैम्पस में दिनदहाड़े घटा जहाँ रात में भी लड़की अकेले लैब और लायब्रेरी से वापस अपने हॉस्टल बिना डरे लौट आती है। कैंपस में लडकियों में कोई खौफ़ नहीं होता। लेकिन एक बात तो वह कैंपस भी जानता है कि यहाँ जो लोग पढने आते हैं वे भी समाज से ही बनकर आये हुए लोग हैं। ज़ो ग्रेजुएशन में आता है वह भी पास करके अठारह साल का बालिग होकर अपने भीतर समाज का पुरुष लेकर आया है। जे एन यू इस बात को खूब जानता है.। इसे नोटिस करते हुए ही सबसे पहले इसी विश्वविद्यालय ने अपने यहाँ 'जेंडर सेन्स्ताइजेश्न कमेटी अगेंस्ट सेक्सुअल हरेस्मेंट ' (gscash) को लागू किया था 1999 में। जब अन्य विश्वविद्यालयों/कॉलेजों उसे लागू करने से मना कर दिया था। 
     यू जी सी ने अब जाकर 16 दिसम्बर के बाद इसे अनिवार्य किये जाने पर एक समिति बनाई है और सुझाव माँगे हैं। इस बात की गंभीरता को देखते हुए सीबीएसई ने भी इस ओर कुछ ध्यान दिया है। और बिलकुल अभी- अभी ही सी एस आर ने भी स्कूल में 'जेंडर ट्रेनिंग' देना शुरू किया है। यह ट्रेंनिंग अनिवार्य होनी चाहिए सभी शैक्षिक संस्थाओं के लिए और इसके लिए पर्याप्त फंड होना चाहिए।        
             यह सोचना कि जे एन यू में ऐसा हुआ तो यह अब अनूठा कैंपस नहीं रहा या अब गर्व करने की बात नहीं रही ,यह ठीक नहीं है। यह कैंपस तो बिगड़ी हुयी कुप्रवृत्तियों और सड़ी-गली बलात्कारी मानसिकता का उपचार करके उन्हें सर्वोत्क्रष्ट (best ) बनाता है.. जो पूरे समाज को राह देने के काबिल बन सके। 
       आज हमें अपने पास के हर स्कूल और कॉलेज में जाकर 'जेंडर ट्रेनिंग ' और gscash की माँग करने की जरुरत है। 
जिससे कॉलेज और विश्वविद्यालय पहुंचने से पहले ही हम लड़के ,लड़कियों को जेंडर के प्रति संवेदनशील बना सकें और उन्हें स्त्री /पुरुष की बजाय इंसान बनने के संस्कार मिल सकें। 
    निस्संदेह जे एन यू यह सिखाता है कि किस तरह एक इंसान को दूसरे इंसान के साथ एक मनुष्य की तरह का बर्ताव करना चाहिए। जे एन यू में आने से पहले जो सीखा उसे छोड़ना कितना मुश्किल है यह जे एन यू में पढ़े किसी पुरुष से तब पूछना जब वह अपने परिवार में डेमोक्रेटिक हो। … यह आसान नहीं है लेकिन नामुमकिन भी नहीं है। ऐसा होता भी है और कई बार नहीं भी। 
इस केस में नहीं हुआ लड़का जे एन यू का डेमोक्रेटिक कल्चर की उपरी खाल का चोला उतार गया और स्त्री के प्रति अपने पुराने voilence के संस्कार को जीते हुए मर गया। 
           साथ पढ़ने वाला सहपाठी स्कूल में भी यह चाहता है कि सहपाठी लड़की उससे दोस्ती करे तो किसी और से बात न करे और अगर करेगी तो वह लड़की के पिता या भाई से शिकायत करेगा।प्ले स्कूल और नर्सरी में लड़कों को पैर खोलकर बैठना मना नहीं होता और लड़कियों को मना किया जाता है। …..तो यह संस्कार क्या  जे एन यू में आकर अचानक बदल जाएगा ?

       हर स्कूल को जे एन यू  का डेमोक्रेटिक संस्कार देना होगा और हर शैक्षिक स्तर पर इसकी सायास ट्रेनिंग देने की बात अपने आस -पास करनी होगी।
    हमें इस पर गर्व करना होगा कि हमारी आँख में एक ऐसा सपना है जो हमें जे एन यू  से मिला। 
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कंचन 









Sunday, July 28, 2013

कड़क सर्दी की एक सुबह और एक प्याली चाय ………………
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जाड़ों की एक सुबह एक पुरुष रचनाकार मित्र ,
महिला रचनाकार मित्र के घर सुबह-सुबह मिलने पहुँचे 
महिला रचनाकार को दफ्तर भी जाना था 
तो बातचीत के लिए समय कम था 
 मौसम का ठंडा मिज़ाज एक गर्म चाय की पुकार में था 

लेकिन समय कम था इसलिए महिला मित्र के आग्रह करने पर भी 
रचनाकार पुरुष मित्र ने उन्हें किचेन में जाने से रोक दिया और 
जरुरी उस काम पर बात करने लगे जिसके लिए आये थे 
सामने की कुर्सी पर महिला मित्र के पति बैठे थे 
जिनका साहित्य से कोई लेना देना नहीं था 
बगल के कमरे में अठारह-उन्नीस वर्ष का
उनका बेटा भी कंप्यूटर पर काम करता नज़र आ रहा था 

सर्दी की कंपकंपी बार-बार चाय की याद दिला रही थी 
लेकिन पुरुष रचनाकार बार -बार समय की कमी की 
याद दिलाकर उन्हें किचेन में जाने से रोक दे रहे थे 

महिला रचनाकार के पति महोदय को देखते हुए  
मैंने बार-बार  सोचा ,शायद यह चाय बना लायेंगे 
मैं भूल गयी थी कि वह पुरुष पति की भूमिका में था 
और अपने पुरुष होने की कौम का धर्म निभा रहा था 
बगल के कमरे में बैठा दीखता उसका बेटा भी वही था
 
चुपचाप  नहीं बैठा था वह कुछ-कुछ बोल ही रहा था 
लेकिन चाय बनाने के लिए किचेन में जाने के नाम पर 
वह घुन्ना असली पुरुष का ख़िताब हम मेहमानों से
 रिसीव करते हुए अपनी छाती चौड़ी कर रहा था  

चलते वक़्त भी महिला रचनाकार के चेहरे पर 
चाय न पिला पाने का अफ़सोस नज़र आ रहा था 
लेकिन उसके पीछे खड़ा पुरुष मुस्कुरा रहा था 
मुझे उस पर खूब क्रोध था लेकिन बेबस थी 
सिर्फ उस महिला रचनाकार की वे रचनाएँ
 याद आती जा रहीं जो मुक्त स्त्री रच रहीं थीं
 जिनमें पुरुष चाय और बिरियानी सब बनाता है 

कई महीनों बाद अखबार में छपी थी 
उस पति की फोटो ' हथकड़ी पहने हुए'
गुनाह उसने कबूला था- " देह सुख में हुई
 चूक के कारण पत्नी की हत्या की थी "
पत्नी को पसंद नहीं थीं उसकी हरकतें 
सहते- सहते एक दिन मारी गयी वह।   

ख़बर पढ़ते ही उस दिन का वह महान पुरुष 
अपनी उस मर्दानी मुस्कान  के साथ आँखों में घूम गया 
जो एक चाय बनाने की खातिर भी 'पुरुष 'बना बैठा था  

अब भी कोई हैरानी नहीं हुयी मुझे 
सिर्फ उस महिला रचनाकार की 
रचनाओं की मुक्त स्त्री और सहयोगी पुरुष याद आते जा रहे थे । 
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कंचन  

Saturday, July 27, 2013

मेरे सपनो की रानी
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अपने साथ पढ़ने वाली तेज- तेर्रार ,साहसी,
बुद्धिमान और प्रखर-मुखर लड़की को देखकर
लड़के की आँखों में चमक और
होठों पर मुस्कान दौड़ गयी ……

यह उसके सपनों की लड़की थी
दोस्ती का हाथ बढ़ाया तो
दोस्त बनते- बनते दोनों
प्रेमी- प्रेमिका बन गये

प्रेमिका होने में भी
साहस और मेहनती होने की दरकार को
निभाया उस लड़की ने।

पढ़ाई करती ,पार्ट टाइम नौकरी करती
अपना और बॉय फ्रेंड का खाना बनाती, कपड़े धोती।
अपनी पढ़ाई का ध्यान कम हुआ
लेकिन लड़का बड़ा अफसर बन गया

लड़के ने लड़की को गुड बाय कहा !!!

नहीं नहीं ,
शायद … उन दोनों ने परिवार की मर्जी के बिना विवाह किया ……….

परिवार समझदार होते हैं अक्सर
लड़के को माफ़ किया और उसके साथ रहने लगे
लेकिन बहू को साथ रखने की स्वीकृति नहीं दी ……

लड़की का साहस और मेहनती होने का स्वभाव जारी था
वह दूसरे शहर में नौकरी करती अकेले रह रही थी
लड़का अब भी उसके साहस पर गर्व से निहाल था ….………

लड़का अब पति की तरह
महीने में एक बार उसके पास आता
वह पत्नी की तरह निहाल होती,
लेकिन साहस अब ढलान पर था
अक्सर उसकी प्रखरता ,मुखरता
बुदबुदाहट में बदलने लगती ……………

एक दिन चलते -चलते
कोर्ट के आगे ठिठक गयी और
उसका साहस खिलखिला उठा …
पहले प्रखर और मुखर नोटिस गया,
फिर लड़की खुद पत्नी का अधिकार लेकर
सामान के साथ पहुँच गयी पति के पास ……

लड़का आज पत्नी के साहस पर हैरान होकर
निहाल होने की जगह निढाल होकर गिरने लगा
कि मेहनती, साहसी लड़की ने उसे थाम लिया
लड़का कुछ देर में होश में आया तो
खुद को लड़की की बाँहों में मुस्कुराता पाया
यह उसके सपनो की लड़की की बाहें थीं
जिन्हें थामकर, वह अपने समय को पार करने की कोशिश में
कभी अपना तो कभी उस लड़की का नाम पुकार रहा था …………….

लड़के ने नज़र उठाकर देखी तो
हैरान था वह कि उसका परिवार वहाँ से नदारद था…

लड़का फिर आज लड़की के साहस और हिम्मत पर गर्व कर रहा था …
मेरे सपनो की रानी।

अब एक नये कसबे में उनका अपना महल बन रहा था ……
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कंचन
मेरा घर मेरा है …. 
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मेरा घर मेरा है … 

घर मैंने बनाया है मेहनत की अपनी कमाई से 
घर के बाहर मेरा नाम और पता लिखा हुआ है 
ठीक जैसे पिता के घर के बाहर पिता का नाम था 

अपने लिए घर मैंने खुद खरीदा अपनी मेहनत के पैसों से 
अब घर से निकाले जाने का कोई खौफ कभी नहीं होगा 
मेरे पांवों की जमीन पक्की और पहचान अपनी होगी

बचपन से मालूम था कि पिता का घर पराया है मेरा नहीं
 बताया गया था "औरत का अपना घर कोई नहीं होता "
मैंने नहीं मानी बतायी हुयी बातें और बदल डाली जड़ भाषा  
 नेमप्लेट पर सजा मेरा नाम और पता मेरा अपना वज़ूद है

लड़की को दहेज़ नहीं , उसके अपने मजबूत पाँव मिलने चाहिए
जिनसे नापी  जाये धरती और अपने पाँवों की मजबूत जमीन हो  
बेटी के सपने में , सफ़ेद घोड़े पर सवार घरवाला नहीं चाहिए 
उसके सपने में अपनी राहें और पहचान का मुकाम होना चाहिए 

पिता को घर बनाते और माँ को उसके लिए पैसे बचाते देखकर ही 
मैंने सीख लिया था अपना घर बनाना 
अब कोई नहीं कहेगा कि "औरत का कोई घर नहीं होता "
सच यह है कि स्त्री को कोई घर देता नहीं है ,
स्त्री अपना घर खुद बनाती है अपनी मेहनत और लगन से

आज मैंने बनाया है, कल सब बनायेंगे 
अब मेरा घर मेरा है, बाहर लिखा पता मेरा है
अब सब जानते हैं मुझे मेरे नाम से यहाँ 
घर मेरी पहचान , मेरा साहस,मेरा वजूद  है………
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कंचन 

Tuesday, June 18, 2013

 कदमताल बनता फोटो 
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जो सदियों तक 
कोमा में पड़ी रही अनवरत 
अचानक बुदबुदाने लगी 
बिना रुके बोलती रही लगातार .........

कान कहीं हैं नहीं 
सुन कोई नहीं रहा कुछ 
फिर भी जीभ चलती जा रही है लगातार ...... 

काट रही है अपने धागे 
ढूंढ रही है पाँव के घुँघरू 
घुँघरू की रस्सी के निशां बाकी हैं .......

कोमा में पड़ी स्त्री अचानक 
थिरक उठती है 
उसके कान गायब हैं 
संगीत उसकी आँखों में है 
जीभ अपनी चाल में है 
पाँव और जुवां कदम ताल कर रहे हैं .....

पचास की उम्र में 
अपना बीस साल पुराना फोटो 
बार -बार देखना चाहती है 
आईने से भी ज्यादा 

जवां उम्र की लड़की को 
दिखाती है अपना पच्चीस का फोटो 
चिहुँक कर बताती है अपना पूरा ब्यौरा 

खुश है कि अपने फोटो में ताज़ा और जवां है 
तेज़ी से मुद्रायें बदलती नाचती जा रही है लगातार ..................
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कंचन 
झील पर फ्लेमिंगो आते हैं
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एक सुंदर झील , 
जहाँ आते हैं फ्लेमिंगो ......

झील के नीचे
 डूब गया है एक भरा पूरा
 शहर ..........................

जो कभी खिलखिलाता था 
जहाँ बजता था संगीत 
गूँज थी घंटियों की 
थाप थी तबले की 
तीज-त्योहार की रौनक थी 
आँखों में सपने थे झिलमिल रंगीन ....

ब्याही लड़कियों की आँखों लम्हा -लम्हा 
डूब रहा होता है भीतर मायके का शहर  
खुबसूरत गृहस्थ के नीचे हर रोज़
 देखती हैं ब्याही आँखे अपने डूबते शहर को 

 किसी तेज लहर का बहाव नहीं 
लेकिन बहता है शहर उनकी रग-रग में 
कोई सड़क बहती नहीं ,
धँसता नहीं कोई मोहल्ला ,
सब साबुत जीवाश्म हैं 
सुन्दर झील के नीचे 

झील के ऊपर खिले हैं कमल -दल  
झील के उपरी तल पर आते हैं फ्लेमिंगो ........
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कंचन 

Monday, June 17, 2013

ज़मीन पक्की है ........
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न जाने कब से जमा करती रही हूँ
 ईट ,गारा ,बजरी ,रेत 
एक मकान बनाने को ,
ज़मीन कहीं थी ही नहीं ...................

अब जब तुमने दे ही दी हैं
अपनी पक्की ज़मीन
तो फिर मेरा मकान भी 
 हाज़िर है 'हमारा 'आशियाँ बनने के लिए  .................

 बारिश के सुनहरे मौसम में
कभी बह न जाये पक्की ज़मीन 
और टूट जाए हमारा ख़्वाब 
इस दुआ में हाथ ऊपर उठे हैं ................

ईंट ,गारे,सीमेंट तो मेरे अपने हैं 
ज़मीन के  पक्केपन का भरोसा  
तुम्हारी अपनी कुदाल के पैनेपन 
और नज़रों के पसीने में है ..................

तुम्हारी खमोशी में दरारें दिख रही हैं,
धीरे-धीरे  से नहीं अब 
तुम्हे जोर से कहना होगा 
ज़मीन पक्की है ...मकान हमारा है।
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कंचन 

Sunday, June 16, 2013

पिता या पितृत्व / फादर या फादरहुड .......
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फोन पर बात करती छोटी बच्ची के लिए  
पापा,माने- चाकलेट ,चिप्स और हेयर क्लिप 
आईने में  पापा की नक़ल करते बेटे के लिए
पापा, माने एक अच्छा कैच और सुपर हीरो 

पापा ,माने ससुर यानि फादर इन लॉ 
जिनकी बेटी और बेटे के साथ जीवन गुजरता है
 
पापा, जो बेटी विदा करते हैं 
पापा, जो बेटे को घर से निकल देते हैं 

पापा, जो बेटी के प्रेम करने पर ज़हर खाने की धमकी देते हैं 
पापा ,जो अपने ही बेटे बेटी का सर कलम भी करते हैं 

पापा , जो माँ के मरने पर बच्चों की परवरिश अकेले नहीं कर पाते 
पापा ,जिन्होंने शायद ही कभी अपने बच्चे को नहलाया हो /पॉटी धोयी हो 

पापा ,जो माँ को हमेशा फटकारते रहे
 पापा जो हमेशा बच्चों के बिगड़ने के लिए माँ को दोष देते रहे

पापा ,जो शादी के बाद बेटी के घर कभी नहीं गये 
पापा ,जिन्होंने शादी के बाद बेटी से कोई मतलब नहीं रखा 

पापा जिहोने हमेशा बेटों को गलियाँ दीं 
पापा जिन्होंने कभी अपनी मर्ज़ी से बच्चों को कोई काम करने नहीं दिया 

पापा जो हमेशा सबसे सवाल करते और मनमुताबिक जबाब लेते रहे  
पापा जिनसे कभी घर में किसी ने सामने सवाल नहीं किये

पापा जिनके लिए हमेशा सबकी आँखों में सवाल रहे 
पापा जिनकी आँखों का रंग लाल --- कभी गुस्से में ,कभी दुःख में ...

पापा जो बचपन में हीरो और जवानी में जीरो लगे 
पापा फिर भी अपने  बच्चों के वजूद में धँसे ही लगे 

पिताओं ,तुम्हारी संताने तुम्हारा  इतिहास लिखने को आमादा हैं 
दिन मुक़र्रर है , सजा नहीं ..................
संताने चलन बदलने का गीत गा रही हैं ..............
अरे पिता ! तुम तो नाच रहे हो ...........................
तुम नटराज लगने लगे ...
अचानक ....डमरू की आवाज़ तेज होती जा रही है ....
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कंचन   

Saturday, June 15, 2013

तार ...........
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एक तार की गूँज 
झनझनाती है अक्सर ,
उसे भेजा तार ,पहली बार ............

"जल्दी लौटो ,इंतज़ार में हूँ " 
अक्षर-अक्षर मूल्यवान ,
सिर्फ वह भावना अनमोल ------------------

बजते हुए  सितार का एक तार 
झट से टूटा, सुर बिखरे ,  
जब खबर मिली-----
उसका पता बदल जाने की .................

तबले पर कोई टुकड़ा /परन अब भी बज रही है ....द्रुत लय में
अब कोई तार कहीं नहीं जायेगा।
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कंचन 

Thursday, June 13, 2013

1 2  जून ......./......दो जून ....
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छोटे बच्चे घर के काम के लिए बहुत सही रहते हैं ...
 खासतौर से छोटी लड़कियां ...
डांट देने से चुप हो जाती हैं ..
चालाकी कम करती हैं ...
कम खाना लगता है ..
थोड़े में खुश हो जाती हैं ...
मुलायम हाथ की मालिश भी अच्छी रहती है ...
इनके प्यार व्यार का खतरा नहीं रहता ....
घर के अन्दर कुछ हो जाए तो बात दब जाती है .....
.वगैरह ....
इतनी महंगाई में घर चलाना है ...
सबको पानी हाथ में चाहिए ...
कोई घर के काम करना नहीं चाहता ...
बड़ी लडकियाँ बहुत तंग करती हैं ...
 घर तो ऐसे ही चलेगा ...............
    अब अन्तराष्ट्रीय श्रम संगठन भले ही (12 june )अपना नारा देकर विश्व दिवस मनाता रहे---
            say no to child labour in domestic work.....

वे धूल में सने , ख़ामोशी से 
कपड़ा लिए कोना - कोना चमकते रहते रहते हैं ..
घर के बच्चों के संग हँसते रहते हैं ...
सबके बदले की डांट खाकर सुबक लेते हैं ...
आने के कितने बरस बीते यह भी याद नहीं ....
कैसे जाने बारह जून या दो जून  ?
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कंचन 

Tuesday, June 11, 2013

 मस्ती की पाठशाला / प्रेम
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                                       ( 1 )

हम तेरे बिन जी नहीं सकते ../
ना  जी  / खाओ , पियो , खिसको ...     : आशिक़ी 


 कई बॉय फ्रेंड्स .. नो,नो ,आइ एम लॉयल ..../

 अरे! अपन तो क्रिशन कन्हैया हैं .. एक नहीं कई गर्ल फ्रेंड्स ..
 आइ एम नॉट सीरियस ..बस यूँ ही ज़िन्दगी के मज़े हैं, यार./

 अरे !मैं तो प्रेम पुजारिन, तुम्हारे  बिना जान दे दूंगी।/


(कितने लड़के प्रेम दीवाने बनकर जान देते हैं ....
 अलबत्ता ...बेवफाई गर दिखे तो जान ले लेते हैं ..) 
                                             
                                              
                                     (2 )

"अकेलेपन और यादों में जीने से अच्छा है मर जाना " - मानकर ही जान देती हैं लडकियाँ 
कुछ महीनों /सालों का प्रेम और अब जीवन का भविष्य समाप्त ..फिर कौन  साथ देगा ....
प्रेम समाप्त तो जीवन समाप्त ..................................

नहीं , यह ग़लत ट्रेनिंग का नतीज़ा है ....
प्रेम में जान की कीमत चुकाना ..क्यों ???
 
 
बीस -पच्चीस साल तक जिस परिवार से जुड़ी रहती हैं लडकियाँ 
उससे अलग हो जाती हैं ...तब तो खुद मरती नहीं ...कोई दिल की टूटन कहता  तक  नहीं ...
क्योंकि बचपन से इसकी ट्रेनिंग दी जाती है कि यह कोई ट्रॉमा नहीं ,
यह धर्म है ..यह सुख है ...सेवा धर्म है ....यह भाग्य है ...

अपनी एक-एक नस से खून देकर अतिशय पीड़ा ख़ुशी- ख़ुशी सह लेती हैं लड़कियां 
एक नया जन्म देती हैं ..नयी सर्जना का गौरव धारण करके फूली नहीं समातीं ...
क्योंकि बचपन से ट्रेनिंग मिलती है ..मातृत्व गौरव है ....

अपने लिए प्रेम की तलाश में जो कोई एक मिल गया तो उसी के लिए जीना ..
उसे ही अपनी ज़िन्दगी बना लिया ..और फिर  मरना भी उसी के लिए ...
क्योंकि बचपन से ट्रेनिंग है  किसी एक के प्रति ही पूर्ण  समर्पण ही प्रेम है ...(यही देखा ...और सीखा ..)
अब वह प्रेमी / पति जीवन नियंता बन गया ...मारे -पीटे ..अपमान करे ....इग्नोर मारो ...

ट्रेनिंग है ..सब ठीक हो जाएगा ...उसकी कमियां भी तुम्हारी ..तुम्हारा प्यार भी उसका ...
ट्रेनिंग है वह जिस हाल में रखे रहो ...उसके बिना अब अपने जीवन का भी मोल कुछ नहीं ....
ट्रेनिंग है सहने की ...सब ठीक हो जाने के भरोसे की ...
ट्रेनिंग है दूसरों के लिए जीने की ....
ट्रेनिंग है दूसरों से सम्मान में मिलने वाली ज़िन्दगी की ....

अपने जीवन का सम्मान करने की कोई ट्रेनिंग क्यों नहीं ...?
अपने जीवन और अपने सम्मान के लिए दूसरों का मुंह देखते रहना ज़रूरी क्यों ? ....
जब दूसरों की देखभाल आती है तो अपनी क्यों नहीं ?
माँ अपनी देखभाल और अपना सम्मान सिखाती क्यों नहीं ?

                                               
एकांत और अकेलेपन  के सुख और अपनी जिंदगी के आनंद /सम्मान की कोई ट्रेनिंग नहीं होती ..???

(अगर होती तो प्रेम में निराशा के कारण आत्महत्यायें / हत्याएँ शायद रुक सकतीं ,
प्रीती राठी की एसिड डालकर हत्या न होती और शायद  जिया खान भी मनमस्त होकर जिन्दा होती )

यह ज़िंदा रहने की लड़ाई है ....
मौत  के बाद कुछ नहीं ...
जीवन प्रेम हैं ....

जीवन के लिए प्रेम करो ...
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कंचन 

Monday, May 27, 2013

ज़ुर्म का पाठ 
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नहीं, यह बिलकुल गलत है 
छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में बंदूकें दे देना 
औरतों का अदालत में जाकर बलात्कारी की हत्या कर देना 

नहीं, यह बिलकुल गलत है
बच्चों की नयी मासूम आँखों में नुकीली धारदार ख़बरें चुभ देना
मासूम किलकारी को चीख में बदल देना 

नहीं, यह बिलकुल ही गलत है 
शीलवती को रौंदकर बिना कपड़ों के नंगा घुमाना
गौरवमयी माँ का अपनी ही कोख उजाड़ देना 

नहीं , यह बिलकुल ग़लत है 
इंसानी रूप में पैदा होकर हैवान बनने की प्रक्रिया रोज़ देखना 
गेहूँ उगाने वाले का एक रोटी के लिए तरसकर मर जाना 

नहीं , यह बिलकुल ही गलत है 
सब गलत- गलत को बार- बार लिखना और बार- बार पढना
समाचारों में सब गलत- गलत का बार-बार छापना 

एक ऐसे पन्ने की तलाश में रुंध रही है साँस 
जिसमें सब सही-सही कहा/लिखा जायेगा 
जिसे बच्चों को रोज़ बार- बार रटाया जायेगा 
जिसमें मनुष्य की हर शक्ल को इंसान माना जायेगा ................. 
_________________________________________________kanchan
चुप रहो  तुम ..................
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जब बाहर गोलियां चल रही हों  
क्या हमें उस समय  चिड़िया और सुहावने मौसम पर 
एक सुन्दर कविता पढ़ लेनी चाहिए ....................

जब मौत ने आकस्मिक रूप से हमें हर तरफ से  घेरा हो 
क्या हमें उस समय बच्चों को आसमान का
कोई  सबसे सुन्दर तारा उन्हें देर तक दिखाना चाहिए ...........

जब मानवीयता के नये शब्दकोश पर देर तक बहस चल रही हो 
क्या हमें उस समय अपने इलाके का 
सबसे लोकप्रिय लोक संगीत सुनना चाहिए ...................

चीख की गर्द से आसमां भर गया हो जब 
क्या हमें उस समय दर्द से बिगड़े हुए अपने आइने  को 
ताजे गीले अखबार से देर तक पोंछते रहना चाहिए .............
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कंचन 

Thursday, May 23, 2013

"लिलीज़ ऑफ द फ़ील्ड्स ' जो भविष्य के बारे में कुछ नहीं सोचते .."
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एक दिन एक तेईस -चौबीस साल की लड़की अपने साथ एक सोलह -सत्रह साल की लड़की को लेकर सामने आ खड़ी हुयी .....
दोनों वर्किंग वीमेन हॉस्टल में रूममेट थीं। बड़ी लड़की अपनी ट्रेनिंग के बाद नौकरी कर रही थी और छोटी पढ़ रही थी ..दोनों में बड़ा प्यार दिख रहा था क्योंकि उनमें एक दूसरे फिक्र दिखाई दे रही थी।
 दरअसल बड़ी लड़की छोटी लड़की की चिंता कर रही थी कि इसके इम्तहान होने वाले हैं और ये हैं कि बार- बार किसी के ख्यालों में गुम हो जाती हैं ,...किसी के मोबाइल की घंटी का इंतज़ार करते करते ही सारा वक़्त गुजार देती है ......
सोलह -सत्रह साल की लड़की ने भी अपनी पलकें नीची किये हुए हामी भरी ,जैसे अपना किया गुनाह कबूला हो .....
उसका हामी भरना था कि मेरा मन  कहीं भीतर तक लबालब होने लगा।  मन के साथ आँख तक हरी भरी हो गयी। 
आँख ने देख लिया था मन की उस पहली प्रेमिल सुनहरी रंगत भरी छुअन को जिससे वह  लड़की सराबोर हो रही थी।
मैंने उस बड़ी लड़की की तरफ देखा जो छोटी लड़की की शिकायत कर रही थी .......मेरे भीतर उसके लिए दुआ में मेरे हाथ उठ रहे थे .....
मैं लौट रही थी कई साल पहले जब मेरे साथ की कई लड़कियाँ  अपने कानों में घंटियाँ सुन रहीं थीं ....
घाटियाँ बजने पर हमेशा ख़ुशी की परन बज उठती  हैं ...
स्कूल में , मंदिर में,गिरजाघर में, और मोबाइल में .......

मैंने उस छोटी लड़की  की झुकी हुयी पलकों को सुनानी चाही  वह कहन जो  निर्मल वर्मा ने ईसा के हवाले से  लिखी -  "धूप में खिले-खिले 'लिलीज ऑफ द फील्ड' ,जो भविष्य के बारे में कुछ नहीं सोचते "......
प्रेम की पहली छुअन में खोये रहना बार -बार बिलकुल ऐसा ही है -
 "लिलीज ऑफ द फील्ड ,जो भविष्य के बारे में कुछ नहीं सोचते "......
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कंचन 

Wednesday, May 22, 2013


हौसला कोई काट नहीं सकता ...............

अरुणिमा सिन्हा ,
तुम्हें गुंडों से कोई डर नहीं ...
तुमने गुंडों का विरोध किया तो उन्होंने चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया ...
तब एक्सीडेंट में पाँव कटा ...
तुमने अपने हौसले नहीं खोये ...
तुम्हारा हौसला एवरेस्ट की चोटी तक चला गया ..
तुम अंग गंवाकर एवरेस्ट पर पहुंचने वाली पहली महिला बन गयीं ...

हौसला कोई काट नहीं सकता .................................
________________________________________kanchan