Sunday, July 28, 2013

कड़क सर्दी की एक सुबह और एक प्याली चाय ………………
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जाड़ों की एक सुबह एक पुरुष रचनाकार मित्र ,
महिला रचनाकार मित्र के घर सुबह-सुबह मिलने पहुँचे 
महिला रचनाकार को दफ्तर भी जाना था 
तो बातचीत के लिए समय कम था 
 मौसम का ठंडा मिज़ाज एक गर्म चाय की पुकार में था 

लेकिन समय कम था इसलिए महिला मित्र के आग्रह करने पर भी 
रचनाकार पुरुष मित्र ने उन्हें किचेन में जाने से रोक दिया और 
जरुरी उस काम पर बात करने लगे जिसके लिए आये थे 
सामने की कुर्सी पर महिला मित्र के पति बैठे थे 
जिनका साहित्य से कोई लेना देना नहीं था 
बगल के कमरे में अठारह-उन्नीस वर्ष का
उनका बेटा भी कंप्यूटर पर काम करता नज़र आ रहा था 

सर्दी की कंपकंपी बार-बार चाय की याद दिला रही थी 
लेकिन पुरुष रचनाकार बार -बार समय की कमी की 
याद दिलाकर उन्हें किचेन में जाने से रोक दे रहे थे 

महिला रचनाकार के पति महोदय को देखते हुए  
मैंने बार-बार  सोचा ,शायद यह चाय बना लायेंगे 
मैं भूल गयी थी कि वह पुरुष पति की भूमिका में था 
और अपने पुरुष होने की कौम का धर्म निभा रहा था 
बगल के कमरे में बैठा दीखता उसका बेटा भी वही था
 
चुपचाप  नहीं बैठा था वह कुछ-कुछ बोल ही रहा था 
लेकिन चाय बनाने के लिए किचेन में जाने के नाम पर 
वह घुन्ना असली पुरुष का ख़िताब हम मेहमानों से
 रिसीव करते हुए अपनी छाती चौड़ी कर रहा था  

चलते वक़्त भी महिला रचनाकार के चेहरे पर 
चाय न पिला पाने का अफ़सोस नज़र आ रहा था 
लेकिन उसके पीछे खड़ा पुरुष मुस्कुरा रहा था 
मुझे उस पर खूब क्रोध था लेकिन बेबस थी 
सिर्फ उस महिला रचनाकार की वे रचनाएँ
 याद आती जा रहीं जो मुक्त स्त्री रच रहीं थीं
 जिनमें पुरुष चाय और बिरियानी सब बनाता है 

कई महीनों बाद अखबार में छपी थी 
उस पति की फोटो ' हथकड़ी पहने हुए'
गुनाह उसने कबूला था- " देह सुख में हुई
 चूक के कारण पत्नी की हत्या की थी "
पत्नी को पसंद नहीं थीं उसकी हरकतें 
सहते- सहते एक दिन मारी गयी वह।   

ख़बर पढ़ते ही उस दिन का वह महान पुरुष 
अपनी उस मर्दानी मुस्कान  के साथ आँखों में घूम गया 
जो एक चाय बनाने की खातिर भी 'पुरुष 'बना बैठा था  

अब भी कोई हैरानी नहीं हुयी मुझे 
सिर्फ उस महिला रचनाकार की 
रचनाओं की मुक्त स्त्री और सहयोगी पुरुष याद आते जा रहे थे । 
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कंचन  

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