Sunday, June 15, 2014

आवाज़ उठती है तो तालियाँ तो बजती हैं ....
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सिनेमा हॉल की स्क्रीन पर सीन चल रहा है.…

जिसमें एक लड़की जिसका अपहरण हुआ है और हाथ-पाँवों से बंधी पड़ी है. उसे देखते हुए हॉल में बैठे पांच छह लड़कों का ग्रुप बात करता है कि ''देख ले इसके कपड़ों में क्या -क्या दिख रहा है " जबकि लड़की दृश्य में रो रही है।
जिसमें एक लड़की जो अपने बचपन के घावों को याद करके चीख़ती है.. उसे देखते हुए हॉल में बैठे पांच छह लड़कों का ग्रुप अपशब्दों भरी भाषा में अपने डायलॉग से ऐसे दृश्यों को अश्लील बनाता हैं जिन्हे फ़िल्म के दृश्य में अश्लील नहीं दिखाया गया।

इतनी गन्दी भाषा उनके आगे की पंक्ति में बैठी एक लड़की बर्दाशत नहीं कर पाने के कारण फ़िल्म छोड़कर चली जाती है। लेकिन उन पांच छह लड़कों की अश्लील कमेंट्री चालू रहती है।

अचानक सिनेमा हॉल में तीन चार स्त्रियों की तेज आवाज़ आती है "उठाकर फेंक दो इन लड़कों को हाल से बाहर …बुलाओ गॉर्ड को "
उनका इतना कहना था कि पूरे हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी। …

इसके बाद तो फ़िल्म के पूरे होने तक उन पांच छह लड़कों में से किसी ने कोई आवाज़ नहीं निकाली।

आवाज़ उठती है तो तालियाँ तो बजती हैं
ग़लत आवाज़ें इसी तरह बंद होती हैं।
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kanchan
लड़कियाँ -------
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लड़कियांे की किताबें कवर चढ़ी होती हैं
किताबों के कवर के भीतर वे रख लेती हैं प्यार

लड़कियों के बालों से लट निकली होती है
बालों से निकली लट को चिपका लेती हैं गाल से
उनके गाल से चिपका होता है उनका प्यार

लड़कियां अपनी चाय का रंग तय करती हैं
अपनी चाय के रंग में घोलकर पी लेती हैं प्यार
लड़कियां अपने हर रंग को ख़ास बनाती हैं

लड़कियों के पर्स में कई डिब्बियां होती हैं
अपने पर्स की डिब्बियों में न जाने
कितनी बार खोलती बंद करती हैं प्यार

प्रेम पर लिखने वालो तुम्हें पता भी है क्या
लड़कियां कहां कहां छुपा लेती हैं अपना प्रेम

तुम उन्हें गुलाब और गुलाबी गालों में तकते हो
किताब के सूखे फूलों में चुनते हो
तुम्हें क्या पता लड़कियां प्रेम में
कहां कहां होती हैं तुम्हारे भीतर

तुम्हारी चाय के कप में
तुम्हारे बालों की लट में
तुम्हारे कंधे की छांव में
तुम्हारी उंगली के पोर में
तुम्हारे क़दमों की आहट में

लड़कियां नहीं होती सिर्फ
सुर्ख गुलाब और गुलाबी गालों
न किताबों के पन्नों के बीच रखे सूखे हुए फूलों में

जैसे रख लेती हैं अपने कानों के संगीत में अपना प्यार
तुम उन्हें अपने कैनवस के रंगों में उतार लो

प्रेम की क़लम को थामने से पहले
प्रेमिका के दिल की झन्कार से पहले
ज़रा जान लेना दिल थामकर
लड़कियां कहां कहां छुपा लेती हैं अपना प्रेम
तुम्हें कुछ पता भी है!
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कंचन
एक अपील .... / दो टूक बात ....!
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दिवस कभी ख़त्म नहीं होता,
अलबत्ता विभावरी बीत जाती है …

जो प्रेम करते हैं उनके लिए हर दिन ,
हर पल किसी वैलेंटाइन से कम नहीं होता

जो पतिव्रता होती हैं उनकी हर साँस 
करवा-चौथी व्रत में लगी होती है

जो पीड़ा और करुणा में आकंठ डूबे हैं
वे देह की नसों का ख़ून आँखों में उतारते हैं
दिवस कोई नया हो चाहें या विभावरी बीत चुकी हो !

स्त्रियों और पत्नियों के ख़िलाफ़ जो
मज़ाक ,चुटकुले ,जुमले एन्जॉय किये जाते हैं …
पत्नी के बिना जिस आजादी और
खिचड़ी ,आमलेट को गौरवान्वित किया जाता है.....

उसे तुरंत और हमेशा-हमेशा के लिए बंद कीजिये !

कोई बौद्धिक और संवेदनशील जब पत्नी को
हत्यारी कहने का चुटकुला सुनाता है
कोई विभाबरी बीत जाने पर जब
अपने बच्चों के पीछे भागने का जुमला फेंकता है
कोई पत्नी के न होने पर जब खिचड़ी और आमलेट
पर अपनी आज़ादी को गौरवान्वित करता है
कोई चूड़ियों को कमजोरी बताता है
तो साफ़ दिखता है कि नेपथ्य का संगीत
कहाँ से बज रहा है…

दोस्तों , किसी कविता की लय में तैरते हुए
वाहवाही के किसी टुकड़े पर थिरक जाना
या किसी पर धारदार खंजर फेंकना लक्ष्य नहीं है

यह सिर्फ़ उस भाषा को रोकने में शूरवीरों के लिए एक अपील है
जो खुले आम अपने बौद्धिक और संवेदनशील हौसले को
जाने /अनजाने में अस्वीकृत हिमाक़त में बदल देते हैं

दो टूक बात -
स्त्रियों के ख़िलाफ़ ,पत्नियों के ख़िलाफ़
शालीन मज़ाक की आड़ में
किये जाने वाले अपमान को बंद कीजिये
तुरंत …
अभी.....

क्या जरूरत है कि आधी घरवाली की तर्ज़ पर
आधा घरवाला के चुटकुले सुनकर सवाल किये जाए ?

हिम्मत और हौसले इतने !
कि स्त्रियों के सामने ही
पत्नी और स्त्री के ख़िलाफ़
चुटकुले और जुमले सुनाकर ठहाका लगता है
और दिवस विभावरी बन जाता है
स्त्री बच्चों के पीछे भागने लगती है
कोई पत्नी हत्यारी कहे जाने पर
पति को खाना देना बंद कर देती है
कोई पति फिर सिर्फ आमलेट बनाकर
आज़ादी बयान करता है

कोई कविता फिर स्त्री इन्क़लाब ज़िंदाबाद के नारे लगाती है
कोई स्त्री फिर कोई अपील ,कोई पीड़ा बयान करती है
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कंचन
कोरा गुलाल……
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बर्फ़ से जमे तुम्हारे
एहसास को पिघलाने
होली की गुनगुनी हवा
मचल-मचलकर आयी है!

मेरा गाल सुर्ख़ हुआ है
लेकिन मेरे हाथ का 
पीला गुलाल कोरा है !…

मैं टेसू का फूल बनूं अब
और चेहरे सबके रंग आऊँ
तुम बादल से रंग बन बरसो
मैं बन गुलाल अब उड़ आऊँ।

हुड़दंग आज मद मस्त खड़ा
झूम- झूम फ़ाग उठ गाता है
तुम बन पिचकारी बरस पड़ो
यह रंगा ख्वाब अब आता है …
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कंचन
बच्चे भगवान् का रूप होते हैं
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आज महानगर की एक माँ मिली
कहने लगी कि मेरे बच्चे से
आस-पास के सब लोग
हाय हेलो करते हैं
बोर होते हैं तो उसके साथ
दिल लगाने भी आते हैं
अपने मोबाइल कैमरे से 
उसके साथ फ़ोटो भी खिंचवाते हैं
लेकिन कितना भी जरुरी हो
तब भी बच्चा उनके पास छोड़ नहीं सकते
पहली बात भरोसा ही नहीं किसी का
फिर कर भी लो
तो उनका घर गन्दा हो सकता है
बच्चे के खेलने से
और बच्चे तो शू पॉटी भी जाने लगते हैं
उनके साथ सिर्फ फोटो ही अच्छा लगता है

आज वह दुखी थी कि
कल बच्चे ने होली पर उनकी बालकनी को
अपनी पिचकारी के पानी से गन्दा कर दिया था
तो आज वे खानदान तक को गाली दे रहे थे
और पुलिस बुलाने की धमकी भी दे रहे थे
यह बताते बताते वह हंस पड़ी क्या पुलिस को यही काम है ?

फिर कहने लगी कि बॉस छुट्टी ही नहीं देता
जब बच्चा बीमार होता है
फिर कहने लगी कि
यह टीवी पर जो कार्टून आते हैं
इनका बड़ा सहारा है
बच्चा इन्हें ही अपना समझता है
बोलती ही जा रही थी बिना रुके
कि मुझे तो यह नौकरानियाँ अपनी लगती हैं
इनके भरोसे ही तो मेरा बच्चा पल रहा है
फिर कहती कि एक बात बताओ -ये सरकार
नौकरानियों को ट्रेंनिंग क्यों नहीं देती ?
जिससे ये मेरे बच्चे ठीक से पालें

फिर जोर-जोर से रोने लगी
अचानक पास खड़े अपने बच्चे को
थप्पड़ जड़ दिए और बोली
मैंने कब बच्चा चाहा था ?
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पति तो न तब कुछ बोला
न अब। ....
बच्चे की स्कूल की टीचर भी तो
मुझे ही फोन करती है
पड़ोसिन भी मुझे सुनाती है
आया न आये तो मुझे ही बच्चे के पास
रुकने के लिए छुट्टी लेनी पड़ती है
मेरी प्रमोशन हो ही नहीं पाती
बॉस मुस्कुरा कर कहता
आप बच्चे तो पाल लीजिये पहले। …

वह रो रही थी लगातार
जैसे उसे कोई छील रहा हो बरसों से

मेरे सामने पार्क में
सुन्दर खिलखिलाते बच्चे बॉल खेल रहे थे
बच्चे भगवान का रूप होते हैं.…
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कंचन
कुछ कहूँ ...तो कुछ लोग कहेंगे कि
अरे आज भी ऐसा होता है क्या… ?
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1 -लड़की फेस बुक पर अपने मित्रों से एकदम काट दी गयी
क्यों कि अब उसकी शादी हो गयी है।
अब दोस्तों और दोस्तियों की जरुरत क्यों ?
उसका फेस बुक अकाउंट बंद कर दिया पति ने। …

2 -आज साठ की उम्र के दो पुरुषों ने कई उदाहरण देकर 
मुझे पूरी तरह सहमत करवाया इस बात पर
कि उनकी उम्र के पुरुष अपनी पत्नियों के
स्वास्थ्य की परवाह और लम्बी उम्र की कामना करते हैं। …
लेकिन मैं युवा उम्र के ऐसे उदहारण
उनके सामने नहीं दे पायी जहाँ पति पुरुष
पत्नी के स्वास्थ्य की चिंता करते हों। ....
मैंने बहुत सी स्त्रियों को गोली खाकर
सालों साल काम करते देखा है। ....

मेरे थोड़ा सशंकित और उदास चेहरे को देखकर
वे दोनों जोर से ताली पीटकर ठहाका लगाकर हँसे
और मुझसे बोले कि "युवा उम्र में
फ़िक्र करने की जरूरत नहीं होती
सेवा करने वाली और साथ देने वाली खूब मिलती हैं। .... "

3-जिस युवा भाई और पति की अपनी
फ्रेंड लिस्ट में खूबसूरत चेहरे वाली कई फीमेल फ्रेंड्स हों
वह अपनी बहन और पत्नी को
अपना प्रोफाइल फोटो लगाने से मना कर देता है
वे लड़कियाँ / स्त्रियाँ अपने चेहरों की जगह
कोई फूल लगा लेती हैं। ....

4 -लड़की को ड्राइविंग सिखा दी क्यों कि
परिवार माडर्न है, लेकिन
भाई और पिता कुछ दिन बाद ही उसके लिए
ड्राईवर रख देते हैं। ....
कारण दो हैं कि एक तो सड़क पर चलने वाले
मर्दों ने सारी सड़कें खुद ही चांप लेने का ठेका लिया है
दूसरे, लड़की कहाँ जाएगी अपनी मर्ज़ी से
इसकी फ़िक्र नहीं करनी पड़ेगी। …

अभी और भी बहुत कुछ कहना है जो होता है
जिसके लिए न कोई आवाज उठती है
न कोई खनक सुनायी देती है ....
राजनीतिक हलकों में कहीं धुँआ सुनायी दे
अगर किसी को तो उन्हें भी बताना
जो झट से कहते हैं क्या आज भी ऐसा होता है। ....
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कंचन
लहूलुहान बचपन !
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कल एक खबर थी कि पति पत्नी दोनों काम पर गये थे
घर में छोटा बच्चा नौकरानी के साथ रहता था
जब वे शाम को घर वापस आये तो
नौकरानी खून में लथपथ मृत पड़ी थी और
बच्चा भी बेहोश था। ....

पहले भी एक ख़बर थी एक घर में 
बच्चा रखने वाली नौकरानी बच्चे को लेकर भाग गयी थी
कई दिन बाद बच्चा मिला।

एक दिन ख़बर थी कि एक माँ ने
सास से दुखी होकर अपने बच्चे को
तीसरी मंज़िल से नीचे फेंक दिया

एक डे-केयर में छोटे बच्चों को अफ़ीम
खिलाया जाता था ,जिससे बच्चे सोते रहें

एक घर में नौकरानी बच्चे से घर के काम करवाती थी
और डराकर रखती थी कि वे सच न बताएं माँ बाप को

एक खबर पढ़ी थी कि माता पिता के जाने के बाद नौकरानी
उनके बच्चे को किराये पर देती थी भीख मंगवाने के लिए

इन सब बच्चों ने अपनी किस्मत से अच्छे पढ़े लिखे माता पिता पाये
लेकिन यह उनका दुर्भाग्य हो गया क्यों कि
पढ़े लिखे माँ बाप ने तो उन्हें असुरक्षित हाथों में सौंप दिया

मेरी आप सबसे अपील है अपने बच्चों की सुरक्षा से समझौता न करें
न बोल पाने वाला बच्चा कैसे अपनी सुरक्षा की मांग करेगा ?

बचपन की किलकारी कानों में लहूलुहान चीख बन रही है
इसे बचाएं !
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कंचन
फिर ढहा एक खूबसूरत शहर
सवालों के ज़लज़ले उठान पर हैं ……
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जलजला आया जब केदारनाथ के पहाड़ों पर
तब ऊपर की खूबसूरत झील ने ऐसा कहर ढाया
कि मन खुद कह उठा मुझसे -
पहाड़ अब सुन्दर नहीं लगते !

अभी खूबसूरत स्मार्ट सिटी पर 
रवीश कुमार की रिपोर्टिंग देख ली
अब कैसे कहूँ कि कुछ शहर खूबसूरत होते हैं !

क्लीन सिटी में पढ़ने और
गन्दी बस्ती में रहने वाला बच्चा
साफ़ बस्ती और सुन्दर पार्क का मतलब जानता है
बड़े होकर सफ़ाई और विकास करना चाहता है
पत्रकार ! उस वक़्त आपके भीतर वैसा ही कोई
बरसों पहले का बच्चा मुझे क्यों दिखायी दिया ?
हिम्मत तो है भई आप मर्द होकर
औरतों के सामने खड़े दूसरे मर्द से कह देते हो कि
अपनी औरतों से क्यों पानी भरवा रहे हो?
आप खुद पानी क्यों नहीं भरते ?

एक और बात हर क्षेत्र में जाकर
एक जानकार सहयोगी लड़की खोज लेते हो
जबकि मर्दानगी ताल ठोकती है कि
सारा कुछ हमी तो दुनिया को बताते हैं

जियो रवीश कुमार …जी भर के जियो
सुंदर शहर के खूबसूरत नक़्शे को
अपनी नज़र से क्या खूब नोचा
किरचें अब तक चुभ रही होंगी
सुन्दर आँखों में झाँककर गाना गाते
युवा की आँख में !

कैसे कहेंगे अब सुन्दर शहर के पीछे के
ढलान वाले शहर को देखे बिना कभी
किसी स्मार्ट सिटी को सुन्दर शहर
तुम सवाल की शक्ल में जलजले उठा रहे हो
खूबसूरत शहर को आइना दिखा रहे हो

बच्चे की आँख में अपनी आँख को डालने का हुनर
और अपनी आवाज़ को दिल में उतार देने का जादू
एक कप चाय में मिट जाता है तुम्हें इतना भी मालुम है ?
अलबत्ता दिल खट्टा हो तो खट्टा रायता खाने में गुरेज़ नहीं।
क्यों है न.… ?
अच्छा जो भी हो
आप खूब जी भर के जियें अपना काम
इस देश के बच्चों को आपके कैमरे की अभी बहुत जरुरत है
उनका जनरल नॉलिज अभी बहुत बढ़ाना है। ……
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कंचन
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"…कबूतर ने अपने बच्चे की सुरक्षा में ,
आसमान छोड़ रखा है ! "
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किचेन की खिड़की और खिड़की के दरवाजे के बीच
सुरक्षित जगह ढूंढकर कबूतर ने दो अंडे रखे।

सात साल के छोटे बच्चे ने देखा तो
उसके अंदर चूजे देखने की उत्सुकता से उन्हें उठाना चाहा

चार साल के बच्चे ने ऐसा करने से मना किया -
कि ''फिर इसके माता -पिता इसे ढूँढेंगे तो परेशान होंगे
अगर कोई हमे ले जाये तो हमारे माता-पिता हमें कहाँ ढूँढेंगे ? ''

फिर दोनों खिड़की के पास जाकर रोज उन्हें देखते रहते
और इंतज़ार करते कि चूज़ो की आवाज़ कब आएगी ?……

तीन दिन बाद माँ से सवाल किया कि
''कबूतर तो आसमान में उड़ा करते हैं
लेकिन यह तो हर वक़्त यहीं बैठा रहता है
उड़ता क्यों नहीं ?
इसे प्यास भी तो लगती होगी ,
खिड़की में पानी रख दो न !"

"…कबूतर ने अपने बच्चे की सुरक्षा में ,
आसमान छोड़ रखा है "

न जाने कितने कबूतर अपने बच्चों की फ़िक्र में
अपने घोसलों में दुबके हैं!

कबूतरों ने पानी में कंकड़ डालने की कोशिश भी छोड़ दी है
तेज़ तूफानी आँधी में समेट रखे हैं अपने पंख
कंकड़ जमा कर लिए हैं घोंसले के आस-पास
ताकि सिर्फ़ बचा सके एक घोंसला
जिसमें बच्चे हैं !

कबूतर की नज़र की प्यास में
आँधी के पार से आने वाली
किसी बूँद की ठंडक है। …

बच्चे चूजों की फ़िक्र में हैं ,
खिड़की में रखा पानी किसी स्ट्रॉ के इंतज़ार में सूख रहा है!……
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कंचन
भीड़ /गैंग से संवाद करना होगा!
भीड़ में कोई मदद करने नहीं आता.…
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लड़की भीड़ में भी अकेली होती है
लक्ष्मी का चेहरा एसिड का शिकार भीड़ में हुआ
प्रीती ने अपना जीवन भीड़ भरी ट्रेेन में खोया
अरुणिमा को भीड़ भरी ट्रेन से फेंक दिया गया
पूर्वोत्तर के लड़के को भीड़ ने पीटकर मार डाला
लोकल बस ,मेट्रो में भीड़ रगड़ देती है पूरा बदन 
भीड़ औरत को सड़क पर नंगा कर रही है
लड़कियाँ गैंग रेप का शिकार होती हैं …

माँ सिखाती रही हमेशा कि
सूने रास्तों पर न जाना
भीड़ में कोई डर नहीं होता!
बार -बार सरकार ने भी नोटिस चिपकाये
कि लड़कियाँ सुनसान रास्तों से गुजरते हुए
सावधान रहें।

अकेले मिलने पर इंसानी दर्प से चेहरा चमक उठता है
वही चेहरा भीड़ में शामिल होकर जहरीला दंश हो जाता है ?

जो अपने घर में स्त्री को हर वक़्त टीसता है
वही भीड़ में जाकर मानवता के नारों की गूँज उठाता है

स्त्रियाँ भी भीड़ के सशक्तिकरण में गूँज उठती है
तीन पग में धरती नापने का हौसला भरती हैं
लेकिन अकेले एक सड़क तक पार नहीं कर पातीं

नागपुर के कोर्ट में औरतों की भीड़ ने ताकत दिखाई
यही ताकत दिसंबर घटना में देश को जगा गयी

एक भीड़ फिर घरों में जाकर अकेली दुबक गयी
एक नई भीड़ रेप को गैंगरेप में बदल गयी
अब रेप नहीं गैंगरेप का जलजला आता है

भीड़ घर- घर में आग फूंक देती है
भीड़ जिन्दा जला तक देती है

खौफ़नाक भीड़ में पागल हुए इंसानों को
बाहर लाने की भाषा की तलाश में हूँ

भीड़ से संवाद करती भाषा का गल्प रचने की उधेड़ बुन में हूँ
क्योंकि भीड़ में कोई मदद करने नहीं आता ....

निजी संवाद की भाषा में तो पुरुष स्त्री से मोहक सुरक्षित बातें कर लेता है
निजी तौर पर हर कोई इंसानियत का साथ दे देता है
लेकिन भीड़ में मदद से पहले लिबास,भाषा और नाम देखा जाता है
अपनी जातिगत अस्मिता की पहचान देखी जाती है

क्या इसीलिए लड़की भीड़ में भी डरती है ?
और इंसान कहीं सुस्ताने से पहले
भीड़ के चेहरे पहचान लेना चाहता है ?

हमें भीड़ से इंसान को बाहर लाने की खातिर
भीड़ से संवाद करना होगा

क्योंकि भीड़ में कोई मदद नहीं करता
क्योंकि भीड़ की ताकत घर तक साथ नहीं जाती

क्योंकि भीड़ के हमले से अकेले बचना भी तो मुमकिन नहीं होता....
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कंचन
मौत से बार-बार इतना सामना होना भी तो ठीक नहीं कि मरने से लगने वाला डर जाने लगे और मरने की चाह उठने लगे। आखिर कितना समझाया जाये दिल को ? मौत तो हर तरफ बिखरी पड़ी है। लगता है जैसे ज़िंदा लोगों को देखकर अट्टहास कर रही है। कोई उम्र हो जाने से जा रहा है तो कोई असमय ही कैंसर, हार्टअटैक ,ब्रेन हैमरेज से चल दिया। सामूहिक रूप में कभी ट्रेन के पलट जाने से तो कभी पहाड़ी जलजला के जाग जाने से इकट्ठे हजारों की तादाद में लोग काल का ग्रास बन जाएँ। प्रकृति की ख़ूबसूरती देखते बीस लोग अचानक तेज पानी के बहाव में बह जाएँ। कोई अपनी छवि की फ़िक्र में छत से कूदकर मिट जाये तो किन्ही नाबालिग लड़कियों को बलात्कार के बाद मारकर पेड़ से लटका दिया जाये। कोई ऑनर किलिंग में जान से जाये तो कोई अपने माता-पिता का सामना न कर पाने से खुद ही स्कूल की छत से कूदकर जान दे दे। किसी को ससुराल में ज़हर देकर मार दिया जाए तो कोई खुद ही धोखा खाकर गले में फन्दा लटकाकर अलविदा कह जाए। ऑफिस में साथ बैठने वाले मित्र की अगले दिन हार्टअटैक से मृत्यु की ख़बर और फिर छह महीने बाद ही उनकी पत्नी का कैंसर से चले जाना और उनके बच्चों का अचानक अनाथ हो जाना। पिछले दस वर्षों में परिवार के छह लोगों का चले जाना जिनमें एक को छोड़कर बाकी सब पैंसठ के भीतर की उम्र के रहे। शेष ज़िंदा बचे भी सब तितर- बितर। लड़कियों और बहुओं का क्या भावनात्मक लगाव कहीं। उनका लगाव तो उनकी कैद की चहारदिवारी है। वहाँ से बाहर उनकी कोई आवाज़ नहीं जाती। कई बार मुर्दों में ज़िंदा भी शामिल नज़र आते हैं। यह बार-बार मौत से सामना कमजोर कर रहा है या मज़बूत बना रहा है। कितनी कठोर है यह मौत की शक्ल में रोज़ गले लगती ज़िंदगी। है कोई ऐसा दिन जब कोई अख़बार मौत की ख़बर के बिना छपा हो। चेहरे से हँसी अब ग़ायब होती जा रही। आइना भी अब कभी मुस्कुराता नहीं। बैकग्राउंड में संगीत मौत का बजता है। उफ्फ़ ! लतीफों के ऐप्प भी मिलने लगे हैं। मौत ज़िंदगी का मखौल उड़ाकर हंसने लगी है। मौत अब हर चौराहे , बेधड़क दिन में तीन बार की ख़ुराक की शक़्ल में पुड़िया बनी जेब में पड़ी रहती है। इतने कठोर सच का बार-बार सामना करना और फिर दर्शन के शास्त्र में कान दिए जाना ही अगर ज़िंदगी है तो मौत क्या बुरी ? जिन्हें संघर्ष करते और फाकामस्ती से जीते देखकर जीते हैं लोग… वे खुद भी मौत के हमले से कहाँ बच पाते ? तो फिर सारे कारज क्या जीवन काटने भर के लिए मौत के इंतज़ार में किये जाते हैं ?
स्वाद,शब्द और स्मृति : 
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दो सप्ताह पहले माँ मेरे घर आयीं। मैंने एक दिन अरबी की सब्जी बनायी। खाने के बाद कहने लगीं कि आज तो तुमने बिलकुल वैसे स्वाद की सब्जी बना दी है जैसी पापा के सामने सालों पहले बनती थी। ऐसी तो अब हम भी नहीं बनाते। मैं सिर्फ मुस्कुरा पायी। कहा नहीं कि मैं तो हर त्योहार पर दादी की पसंद की दाल की कचौड़ी ,अरबी,कद्दू की सब्जी बना लेती हूँ। जिस बहन को ससुराल वालों ने मार दिया उसके पसंद की चटनी और तेहरी बना लेती हूँ। सास के स्वाद की याद में सब्जी मसाला पीसकर कालीमिर्च की मसालेदार सब्जी बना लेती हूँ। कभी -कभी नानी के घर वाली बिलकुल फीकी दाल भी बनाती हूँ। पता नहीं क्यों मुझे स्वाद और व्यक्ति की पसंद का जुड़ाव बहुत महत्वपूर्ण लगता है। जब चिट्ठियाँ लिखने का चलन खूब था तब बहुत बार दिवाली की रात और होली के हुड़दंग के समय हम अपने कमरे में बैठ दोस्तों और रिश्तेदारों को चिट्ठियाँ लिखा करते थे। क्योंकि लड़कियाँ न तो घर से बाहर निकल सड़क पर रंग खेलतीं और न ही दिवाली के पटाखे और जुए के खेल खेलती। हम अपने समय में किसी को स्वाद से याद किया करते हैं तो किसी को शब्दों से।