Thursday, February 27, 2014

आहटों का तांडव …
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तीन पग में पूरी धरती
नापने का सपना देखने वाली औरत
असल ज़िंदगी में एक सड़क तक
अकेले पार नहीं करती !…

जब आदेश मिलता है
तो अकेली होने पर ज़हरीले जंगल में भी 
पाल पोसकर तैयार कर देती है
दो वीर योद्धा …

फिर जब आदेश मिलता है
अग्नि -परीक्षा देने का
तो धरती फोड़ उसमें समा जाने का
हौसला रखती है

हौसले के कारण तो
टांग काट दिए जाने पर भी
एक औरत एवरेस्ट पर चढ़ गयी
एक औरत धरती में समा गयी
एक औरत ने गायब कर दीं
सारी सड़कें अपने ख़वाब में
और नाप ली सारी धरती
तीन पग में।

तीन पग में
धरती नाप लेने वाली औरत
अपनी खिड़की से
सड़क पार का चाँद नहीं ताका करती
वह भर लेती है अपनी दोनों आँखों में
चाँद और सूरज एक साथ
उसके हांथों की उँगलियों से
एक साथ झर उठते हैं
आकाश के टिमटिमाते तारे
जुगनुओं से भर गया है मेरा अहाता
किसी भैरवी की नयी बंदिश
अभी उठने को है....

हौसलों का डमरू
मेरे बादलों में गूँजता है
आहटों के तांडव से थिरक उठता है
कोई नटराज नयी मुद्रा लिए हुए …
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कंचन

Wednesday, February 26, 2014

एक सिगरेट के धुएँ की उम्र जितनी हँसी है मेरी
ये मेरी आवाज़ का जादू है कि आकाश गूंजता है
बादलों के सफ़ेद फाये !
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बंजर ज़मीन से टकराकर
बदहवास लौट आती है
दबी हुयी कोई चीख़
थके पांवों से बेहाल
छोड़कर अपनी चप्पलें
अपनी क़ैद में वापस !

फिर चढ़ जाती हैं नंगे पांव
ऊँचे ख़ूबसूरत पहाड़ों पर
लिपट-लिपट जाती है
हवा के किसी झोंखे से
उड़ जाती बादलों के फाये पर
बहने लगती है बेलगाम
तेज़ बहते पानी की लहरों संग

खिलखिला उठती है !
पानी की लहरों के बीच
किसी पत्थर पर बैठ
वह दबी हुयी चीख़
जो बरसों बाद
घर से बाहर भागती है.…

सुना नहीं गया उसे कभी भी !
न आज जब वह खिलखिला उठी
न तब जब उसे दबा दिया था जोर से

बहरे और गूँगे होने का चलन
अब हमारी चमकदार पहचान है

हम आबाद शहर के चौराहे पर हैं
जिसकी हर राह की मंज़िल
किसी वीरान बस्ती से मिलती है
जहाँ चीखें बेख़ौफ़ खिलखिलाती हैं

वीरान बस्ती का पता सबकी ज़ेब में है
ज़ेब में नन्हीं पाज़ेब खनकती है
ज़ेब में कोई लोरी सिसकती है
ज़ेब से जब निकल भागता है कोई मिल्खा
तब दुनिया के हाथों से ताली बज उठती है

वीरान बस्ती में हर रात
किसी थियेटर के मंच पर
यही रंगीन जश्न होता है
फ़िर कोई चीख बेख़ौफ़
खिलखिलाकर
बदहवास लौट आती है
किसी बंज़र ज़मीन से टकराकर
थके पांवों बेहाल
छोड़कर अपनी चप्पलें
अपनी कैद में वापस !

उसकी गोद में गिर पड़ते हैं
नीले बादलों के सफ़ेद फाये ....
______________________________________
कंचन

Friday, February 21, 2014

जानते कितना हैं हम ------------------
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तुम्हारे धूम थ्री के संगीत के बीच में भी
मैं अपनी माँ का गाया *सासुल पनिया * गाती हूँ
तो तुम्हें गुस्सा क्यों आता है ?

तुम्हारे तारकोवस्की के सिनेमा के बीच में भी
मैं स्टोव की लौ में जली अपनी पड़ोसन को ही देखती हूँ
तो तुम्हें हैरानी क्यों होती है ? 

तुम्हारे संस्कृत उवाच के संगीत के बीच में भी
मैं अपनी दादी की कहावतें ही बुदबुदाती हूँ
तो तुम्हें खीज क्यों आती है ?

तुम्हारे कैनवास की भव्य कलात्मकता के बीच में भी
मैं नयी उंगलियो से खींची गयी टेढ़ी लकीरों को ही देखती हूँ
तो तुम्हें बहुत जोर से हँसी क्यों आती है ?

तुम्हारे झंडे के नीचे उठे चीखों के शोर के बीच में भी
मैं अपने हाथों से एक नया स्मारक खड़ा करके आती हूँ
तो तुम्हें पुरानी तारीख़ क्यों याद आती है ?
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कंचन
पाठ कहाँ से आता है ------------------?
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सिखाया तो यह भी बचपन से जाता है
'आपस में हम भाई भाई '
लेकिन यह समझने में
वर्षों लग जाते हैं कि
यह इस पाठ की ज़रूरत क्यों थी ?

खूब देशभक्ति के गीत गाये स्कूल में 
लेकिन जीवन में जो सच देखा
वह पाठ कहाँ से आता है?

देशभक्ति के गीतों से रोंगटे खड़े होते
उनमें ख़ून बहाने वाले वीर और योद्धा कहलाते------

लेकिन सरेआम सड़को पर
आम जनता का क़त्ले-आम !!
यह पाठ कहाँ से आता है ?

खूब सिखाया पढ़ाया जाता
'यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता '
कन्या पूजन और नारी शक्तिरूपा की कहानियाँ भी-------

लेकिन डायन,घायल और घसीटी जाती नंगी,
चीखती और मृत स्त्री की दुनिया !!
यह पाठ कहाँ से आता है ?

'मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ' और
'वसुधैव कुटुंबकम ' का पाठ
हम सभी ज़रूर-ज़रूर पढ़ते हैं-------------

लेकिन नस्ल, जाति, भाषा ,क्षेत्र के अलग होने से ही
हत्या,अलगाव ,अकेलापन और आत्महत्या !!
यह पाठ कहाँ से आता है ?

****** ******** ***********
कुछ ही दिनों पहले छह लोग असम में मारे गये हिन्दी भाषी होने के कारण
यह एक खास क्षेत्र और राष्ट्र भाषा का मामला मानकर सब चुप रहे
क्या यह पहली बार हुआ ? पहले भी होता रहा है ---------------
कब तक चुप रहोगे ?
पाठ कब सही होंगे ?

कुछ ही रोज़ पहले नस्ल और संस्कृति की दुहाई देकर हमने अपना रंग बता दिया
यह एक खास रंग और खास देश का मामला मानकर सब चुप रहे
क्या यह पहली बार हुआ ? पहले भी होता रहा है ---------------
कब तक चुप रहोगे ?
पाठ कब सही होंगे ?

क्या इसलिए कि मरने वाले सड़क पर मरते हैं
और पाठ बंद कमरे में होते हैं ?

हम कब पाठ बदलेंगे ?
हम कब पाठ को सीधे जीवन की सड़क से जोड़ेंगे ?
बचपन कब तक आश्रम कुटीर बना लताओं और पुष्प गुच्छों से सजा रहेगा ?

पुस्तकों के कवर पेज पर बस्ता टाँगे बच्चे प्रभात फेरी में देशभक्ति के गीत गायेंगे
और पड़ोस में हुए क़त्ल से अनजान ईयरफ़ोन लगाकर कार्टून देखेंगे !!

सही रास्ता निकालता कोई कलाकार
बदहवास शक्ल में खोया-खोया लगता रहेगा तब तक
जब तक हम पाठ नहीं बदलेंगे!

मुस्कानें आग में बदलकर जलाएंगी हमे तब तक
जब तक हम पाठ नहीं बदलेंगे!

हम कब पाठ बदलेंगे ?
हम पथ कब बदलेंगे ???
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कंचन
दहशत में बच्चे पलते हैं !!
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तुम लड़की को सड़क पर दबोच सकते हो
तुम युवा को सड़क पर पीट पीटकर मार सकते हो
तुम प्रेम की सजा में सामूहिक बलात्कार करवा सकते हो

तुम भीड़ बनकर सड़क पर नारे लगा सकते हो
तुम ज्ञानी होकर नये नये कानून बना सकते हो
तुम शांत होकर धर्म की राह दिखा सकते हो 

तुम ज़िन्दा नहीं कर सकते सड़क पर मारे गये लड़के को
तुम ज़िंदा नहीं कर सकते हॉस्पिटल में मरी लड़की को
तुम लौटा नहीं सकते उसकी खोयी अस्मिता को

तुम्हें पता है! तुम मिटा नहीं पाये उसकी पहचान
जिस पर तुमने एसिड डालकर चेहरा बिगाड़ा
तुम मिटा न सके उसकी अंधी आँख में जीते सपने
तुम उसके दिल का प्रेम भी कहाँ मार पाये
जिसे प्रेम करने पर सामूहिक बलात्कार करवाया

तुमने मार डाली अपनी इंसानियत और
अपने बच्चों के दिलों में दहशत भर दी
तुम्हारा पता हम सबको मालूम है
तुम सड़क पर ताकतवर भीड़ हो
और घर के अंदर दर्द में सने लाचार हो

तुम सिर पर उड़ती शातिर चील हो
जिससे अपने बच्चों को बचाना है
भीड़ की दहाड़ के बीच में घुसकर
खोये हुए इंसान का चेहरा उगाना है

नहीं ! यह सब कोरी बकवास और बुदबुदाहट है
सच यह है कि मैं शर्मिंदा हूँ और दहशत में हूँ
अपने बच्चों की फ़िक़र में सुकून की तलाश में हूँ

मैं सड़क पर हूँ ………………………
सड़क पर दहशत है ……………
दहशत में बच्चे पल रहे हैं………
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kanchan
डोर या उड़ान----------------------------- !
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जो उड़ा नहीं सकते 
आसमान में अपनी पतंग ................... 

वे कटी रंगीन पतंग को 
अपनी छत पर
लूट लेने के इंतज़ार में 
दिन भर अपनी नज़रों से उड़ान भरते हैं.…… 

उनकी नज़रों की पतंग
किसी के हाथ में नहीं होती
वह अपनी रौ में उड़ती आती
बिना डोर की रंगीन पतंग
किसी बसन्त के दिन …………

पतंग की ख़ूबसूरती
उसके रंग में है
उसकी डोर में ……

या खुले आसमान में
उसकी उड़ान में !

पतंग जो उड़ते उड़ते
पेड़ में अटके
फट जाए !

कश्ती जो बहते बहते गल जाए!

और दिल
उसका क्या ……………

(पतंग और कश्ती काग़ज़ की
और दिल सीसे का क्यों बनाया )

बसंत ,बरसात और
बरस दर बरस की ये बातें

उनकी बातें !!

या कटी पतंग को देखती
उड़ान भरती नज़र ------------------------
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कंचन
धीमी आवाज़ का शोर ……
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उसकी दबती धीमी आवाज़ को
तेज कर सकने की हिम्मत मुझे चाहिए

नहीं सुननी उसकी आवाज़ केवल अपने कान में
चाहती हूँ कि उसकी आवाज़ और उसकी पीड़ा से
गूँज उठे यह धरती और बृह्मांड

उसे धीमे से कहने की आदत है
उसमें प्रतिष्ठित लोगों के सामने घबराहट है
वह चाहकर भी चीख नहीं पाया कभी
उसकी पीड़ा में घुट गयी उसकी आवाज़ की तेजी

उसने बच्चों को देखा तेज दौड़ते हुए
उसने बच्चों की तेज आवाज़ को भी सुना
उसने भी औरों की तरह तेज़ दौड़ना चाहा
उसने भी औरों की तरह तेज बोलना चाहा

लेकिन उसके पाँव औरों की तरह नहीं थे
उसे कोई नहीं दे सकता सामान्य पाँव
लेकिन उसकी दबी हुयी आवाज़ तो तेज हो सकती है

उसकी धीमी आवाज़ उसकी घुटी हुयी पीड़ा है
उसकी दबती आवाज़ को तेज किया जा सकता है
उसके हौसले को ऊँचा करने की कोशिश में
उसकी आवाज़ भी ऊँची उठती जायेगी क्या ?

उसकी आवाज़ को तेज चीखना सिखाना है
उसकी घुटन को उससे बाहर निकालना है
उसके बँधे हाथ कंधे से ऊपर तक खड़े करने होंगे
उसका हाथ सिर्फ़ कोहनी तक ऊपर उठता है

कितना संकोच है उसके हाथों में, उसकी आवाज़ में
उसके मन की पीड़ा में,उसके मन की जरूरतों में

वह धीमी आवाज़ में तेज़ गति से जल्दी से
अपनी बात कहकर चुप हो जाना चाहता है
लेकिन अपनी आँखों के सपनों में वह चुपचाप
ख़ुद को किसी ऊंचाई पर अकेले देखता है

सपने देखने वाली उम्र में बच्चे तो
"शोर वाली जेनरेशन" का ताना सुनते हैं
लेकिन वह तो तेज आवाज़ निकालने के संकोच में
धीमे से ही कुछ कहकर जल्दी से शांत हो जाना चाहता है

मैं उसकी धीमी आवाज़ से उठती
किसी आक्रामक बैचेनी में हूँ

उसकी दबती धीमी आवाज़ को तेज़ करने की हिम्मत चाहिए ……
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कंचन
समझ … !!
_____________________________

क्या कोई मुझे बतायेगा कि
किसी लड़की को किसी लड़के से
एकतरफा प्यार हुआ हो
और स्वीकृति न मिलने पर
लड़की ने उसके चेहरे पर
एसिड फेंक दिया हो ?

क्या कोई मुझे बतायेगा कि
स्कूल में पढ़ते हुए किसी बच्चे ने
अपनी किताब में किसी लड़की को
पतंग उड़ाते ,नाव चलते देखा है ?
________________________________
कंचन
दूसरों का जंगल …! 
_____________________________________________

माँ ने अपने घर में पुरानी साड़ी से 
कपड़ों के नये आकार बनाना सिखा दिया 

माँ ने अपने घर की सिलाई मशीन से 
जीवन की कतरनों को जोड़ना सिखा दिया 

माँ ने अपने घर में रात के बचे खाने से 
जीभ को नये स्वाद का पता बता दिया

माँ ने अपने घर में रोज़ दिया जलाने से
रात के अँधेरे में राह ढूँढ चलना सिखा दिया

माँ ने अपने होंठों की बुदबुदाहट के बीच से
दूसरों के जंगल में जीने का मन्त्र सिखा दिया

माँ ने अपने घर की बंद दीवारों में छेद से
उसकी आँखों में नया आसमान रख दिया
_____________________________________________
कंचन

  1. ज़मीन / आसमान....... ?
    ____________________________________

    उसने रोज़ अपना रुख़ आसमान का किया
    छीनी गयी किसी रोज़ उसकी ज़मीन हँसते हुए

    उसने जिया हर साँस को हज़ार साँसों की तरह
    निकले हर राह घायल पाँव नये सपने लिए हुए

    उसने आँख खोली साज़ खोले नयी धुन तड़प उठी 
    खुल पड़ते थे उसके पांवों के घुँघरू बँधे हुये

    उसने अपनी ज़ुबाँ में लिखे कई नए शब्दकोष
    लौटी पीछे नज़र तो हँसे कई साल बिखरे हुए

    उसने किया ऐलान तो घंटे बजे , उठ गयी नयी दुआ
    गुज़र जाए वह जिस ज़मीन से मिले हाथ खिले हुए
    ________________________________________________
    कंचन
ज़मीन / आसमान....... ?
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उसने रोज़ अपना रुख़ आसमान का किया 
छीनी गयी किसी रोज़ उसकी ज़मीन हँसते हुए 

उसने जिया हर साँस को हज़ार साँसों की तरह 
निकले हर राह घायल पाँव नये सपने लिए हुए 

उसने आँख खोली साज़ खोले नयी धुन तड़प उठी 
खुल पड़ते थे उसके पांवों के घुँघरू बँधे हुये

उसने अपनी ज़ुबाँ में लिखे कई नए शब्दकोष
लौटी पीछे नज़र तो हँसे कई साल बिखरे हुए

उसने किया ऐलान तो घंटे बजे , उठ गयी नयी दुआ
गुज़र जाए वह जिस ज़मीन से मिले हाथ खिले हुए
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कंचन
बेगाने शहर में ....!
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क्यों बेगाने शहर में आकर 
अपने भी बेगानी रंगत की
चकाचौंध में खो जाते हैं ? 

शहर को यूँ ही बदनाम न करो !

इसने अजनबियों को पनाह दी 
गुमनामों को कोई पहचान दी
और अजनबियत भी कुर्बान की …

किसी नये शहर की गोद में
मन खरगोश सा क्यों है ?
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कंचन
क़सूर किसका ?
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सड़क पर सहपाठी लड़के
रास्ता जाम किये हुए
अपना क्रोध / प्रतिरोध
दिखा रहे थे …

नारों में सवाल
गूँज उठे थे 
लेकिन फ़िज़ा में
एक चीख़ थी.…

सोलह साल की लड़की
कच्ची धूप से उठकर
धुएँ में जा चुकी थी
उसके सपनो का बसंत
लाल रंग में दहक उठा था

उसका कसूर थी
उसकी नोटबुक
जो अब उसके
रहबरों के हाथ में थी ....

नोटबुक में रखा हुआ
एक काग़ज का टुकड़ा
चुगली कर गया
उसमें स्वीकृत था
आमंत्रण खुली हवा ....

लड़की के एक तरफ़
उसके सपने खड़े थे
और दूसरी तरफ़ थी
उसकी वह साँकल
जिसे परवरिश और
इल्म की रवायतों ने
तेज़ आवाज़ में खटखटाया था …

लड़की ने इधर देखा न उधर
उसने सामने की सीधी राह पर
लगा दी ऊँची छलांग
चौथी मंज़िल से....

वह कच्ची धूप से धुँआ बनी
अपने सपनों से आलिंगनबद्ध
खुली हवा में जा मिली …

नीचे की सड़क पर
साथी लड़के उतरे हुए
सड़क जाम किये थे.…

सड़क से सारी लड़कियाँ
ग़ायब थीं एक साथ !
शायद अपने लिए नयी दुनिया
बनाने की राह पर चलते- चलते
कसूरवारों की लम्बी सूची बनाने में
दिलोजान से लगी थीं ....

सवाल एक ही कसूर किसका ?
परवरिश के धागों का या
इल्म की साँकल का या
खिली धूप और खुली हवा के सपने का …

आख़िर क़सूर किसका?

जब लड़की ने आमंत्रण स्वीकार किया
तो उसका चेहरा काला कर दिया आज !

बीते कल में जब उसने अस्वीकृत किया
तब भी मिटायी उसकी पहचान और चेहरा !!

लड़कियाँ आज अपने शहर के बाहर
खड़ी थीं अपने सपनों के आग़ोश में
धुँआ बनी लड़की ने जान ली थी
क्रांति के कर्णधारों की हकीक़त
जो धुआँ बनी लड़की के बदन से लिपटी थी

कोई विद्यालय आज खुल न सका
स्कूल की घण्टी मौन हिचकियों में
ख़ौफ से आँखें फाड़े
दफ़न हो रही थी अपनी क़ब्र में

आज
दुआ में उठा न था कोई हाथ
हाथों में लिपटी थी
परवरिश और इल्म की
भारी एक लाल साँकल …

साँकल जो बज उठती थी
घनी अँधेरी रात में अचानक
आती थी एक हल्की आवाज़
जो सवाल करती
''कसूर किसका ''?

सवाल के शोर के बीच
कच्ची धूप सी धुआं बनती लड़की
बड़ी जोर से खिलखिला पड़ती। ....
_____________________
कंचन
दस्तक !....
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मैं जिस प्रदेश में पैदा और पली बढ़ी हूँ
ससुराल का परिवार उससे अलग प्रदेश में रहता है
मैं अपने एकाकी परिवार के साथ राजधानी में रहती हैं
मैं कई प्रदेशों के रचनाकारों को पढ़ती रहती हूँ
कई विदेशी रचनाकार भी मेरे दिल से लगे हैं

अब मैं किस प्रदेश के साहित्यकारों के साथ फोटू खिंचवाऊँ ?…… 
इसी उधेड़बुन में मेले में कई बार आती जाती रहती हूँ
पुस्तकें यह सब भाँपकर खूबही खूब दाँत निपोरती
और कहकहे लगाती मेरे साथ घर चली आतीं हैं

क्यों न फोटो- फ्रेम के इस फ़ेर से निकल जाऊँ
किसी पन्ने पर कोई कविता बन बिखर जाऊँ
कल फिर से एक और बार मेले में घूम आऊँ

भाभी (जेठानी) कहतीं कि
"अच्छा लगता है कि तुम समय निकाल लेती हो
कितनी किताबें पढ़ कैसे लेती हो ?"
क्या कहूँ कि " जेठानी ननद सास साथ रहती तो
थोडा पापड़ ,अचार ,एक साथ बैठ बनाते
थोडा झगड़ा भी करते तनातनी के साथ.....
सिंधी कढ़ाई के साथ क्रोशिये की झालर लगा मेजपोश बनाते।"
अब यह किताबी संसार ही मेरा स्वाद, मेरा ससुराल है
शब्दों के संग होली है तो
किसी नये विचार की कौंध मेरी दीवाली है
जैसे ससुराल में बदल दिए जाते हैं पहले सीखे सारे स्वाद
ऐसे ही यहाँ भी कोई एक कहानी ने छीन लिया है
बरसात में चाय पकौड़ी का स्वाद....
किसी किताब ने खोलकर रख दी
दोगले समाज की साजिशों की परतें
यह किताबें सारे सत्यों के साथ
मुझे ज़िंदा रखती हैं

मैं दीवारों से बने घर में कहाँ रह पाती हूँ
इस किताबी तिलिस्म की राहों में दिन रात
अपनी तिहाई सुनती थिरकती हूँ

मैं लब्ज़ों के आग़ोश में हूँ
किताबी लिहाफ़ को ओढ़े हुये !

कवरपेज के रँग बिखरे हुए हैं
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुयी है
शायद नयी क़िताब का पता आया है
___________________________________
कंचन
1

Monday, February 10, 2014

सज़ा ! .… माँ ने अख़बार लपेटकर रख दिया 
_______________________________

नया - नया पढ़ना सीखने वाले बच्चे 
पिछले एक साल से ख़बरों में 
एक नया शब्द कई बार 
पढ़ और सुन रहे थे 
शब्द है- बलात्कार /रेप !

नए- नए शब्द पढ़ लेने की ललक में 
ख़बरों की हैडलाइन पढ़ लेते
अख़बार की हैडलाइन पढ़कर
बच्चे ने पूछ लिया आज
*बलात्कार * क्या होता है ?

पास बैठे बड़े पहले सकपकाये
फिर कहा यह * सज़ा *है
जो लड़कियों को दी जाती है

बच्चे कुछ समझे या नहीं
पता नहीं ! लेकिन
उन्होंने फिर पूछा-
" मतलब !
यह कैसी सज़ा है ?"
इस सज़ा में क्या करते हैं

जबाब दिया गया कि
उनके शरीर और मन को नोचकर
उससे ख़ून निकालते हैं.…

बच्चे कुछ समझे या नहीं
पता नहीं ! लेकिन
उन्होंने पूछा-
" क्यों देते हैं यह सज़ा ? "

क्यों कि वे कुछ करना चाहती हैं
क्यों कि वे सपने देखती हैं
क्यों कि वे सुन्दर लगती हैं

पता नहीं बच्चों ने
कुछ समझा या नहीं
लेकिन
छह और सात साल की उम्र के बच्चे
जिन्होंने नया-नया पढ़ना सीखा
वे खामोश हो गये
अख़बार छोड़कर
चले गये

बच्चों ने पिछले सप्ताह भी
पूछ लिया था ख़बर पढ़कर
इसे लोगों ने क्यों मारा ?

थोड़ी देर में बच्चे खेलने लग गये

अख़बार से बच्चों के लिए
सुन्दर पन्ने को अलग़ करने की कोशिश हुयी
बच्चों के सवाल खुल रहे थे कि
माँ ने अख़बार को लपेट कर रख दिया !
___________________________________________
कंचन

Thursday, February 6, 2014

उसने अपने बाल ढक लिए------
बाल आकर्षित करते हैं 

वह अपनी देह को खा खाकर मोटा, बेडौल करने लगी -------
देह के कोण आकर्षित करते हैं 

वह अपना मन धार्मिक पुस्तक में बाँधती रहती------- 
खुला मन आकर्षित होता है 

वह अपनी बेटी के गुलाबी नाख़ून चाकू से खुरचती -------
बदन के रंग लड़की का जीवन बदरंग करते हैं

वह अपनी पलकें रंगने लेती ----------
पलकों पर रेंगते सपने धुंध बन रहे थे

वह अपनी कीलों को नोचती लहूलुहान --------
सलीब पर लटके अपने मन को लिए खड़ी है

उसने मोड़े हैं अपने पाँव सड़क से दूसरी ओर ------
सड़क की राह कहीं तो जाती ही है

वह अपनी नज़र में खुद दीवानी है
दीवानगी से भी खीज़ तो आती है

वह ब्रेन हैमरेज से नहीं मरी मगर
उलटे पाँवो से माइग्रेन तो खनकाती है

वह दरवाजे से आती नहीं
मगर जाती दिखायी देती है
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मेरी आँखें सपना देखती हैं ------------------
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बहुत सारे लोग लेखिका मैत्रेयी पुष्पा का नाम दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्षा पद के लिए प्रस्तावित किये जाने पर अपनी प्रसन्नता ज़ाहिर कर रहे हैं.…

मैं उनकी माता कस्तूरी को याद कर रही हूँ ----लाली तुझे चूड़ी ,बिंदी और पति की सेवा करने के लिए नहीं पढ़ाया था ---------------------

मुझे राजेंद्र यादव जी भी याद आ रहे हैं ---------

मुझे 2001 का अपना एक सपना याद आ रहा है जब मेरी आँखों ने * चाक *पढ़कर महिलाओं के जुलूस के आगे सारंग को नहीं *मैत्रेयी *को देखा था-----------

मुझे * इदन्नमम * की मंदा याद आ रही है जो ठेकेदारों के भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ती है।
सारंग शिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ती है। अल्मा भी राजनीतिक हलके तक शिरक़त करती है। मुझे * फैसला * कहानी की वसुमती याद आ रही है----

जब दिल्ली की सड़कों पर लोग भ्र्ष्टाचार के विरोध में सड़कों पर जमा थे तब मेरी आँखों में एक सपना कौंधा था कि क्या किसी दिन स्त्रियों की लड़ाई के लिये इसी तरह जुलूस सड़क पर होगा ? और मैत्रेयी उसके आगे चलेंगी ------जैसे अपने कॉलेज में लड़ रही थीं व्यवस्था के ख़िलाफ़ ! क्या यह आवाज़ कागज़ के पन्नों से निकलेगी बाहर !!

फिर सोलह दिसम्बर के विरोध में सड़क पर जुलूस निकल आया -------

जब दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्रों के समूह को मैत्रेयी जी की आवाज़ ने सम्बोधित किया , तब वह *कॉलेज वाली क्रांतिकारी पुष्पा* मुझे मैत्रेयी की आवाज़ में लौटती दिखी---

मेरी आँखों ने उनसे कहा कि वे जल्दी ही मैत्रेयी की रची स्त्रियों को राजमार्ग पर जाते देख रही हैं और मैत्रेयी को उनसे आगे-आगे संसद कि तरफ ---------------------

मेरे सपने पर वे हँसी .......
उनकी हँसी से हलचल मचती है यह तो आप जानते ही हैं ------------

मैं अपनी आँखों कि शुक्रगुज़ार हूँ कि वे सपना देखती हैं
मैं मैत्रेयी जी की हँसी की शुक्रगुज़ार हूँ कि वे हँसती हैं

यह जो कुछ यहाँ कहा है वह आज का रचा नहीं हैं ----
पिछले चौदह वर्षों से रच रही हूँ नयी भाषा की तलाश में --
जो मैत्रेयी पुष्पा की कलम से निकले साढ़े पाँच हज़ार छपे पन्नों में ढूंढती हूँ
(हाँ ,पन्नों कि संख्या गिनी हुयी है )

यह आज तो सिर्फ़ आप के लिए कहा है
*आप * का शुक्रिया
___
प्रेम में कभी……………………
___________________________

हिरोइन का हाथ पकड़ चलती ट्रेन में उसे बहुत बार चढ़ाया गया हैं................
लेकिन प्रेम में कभी आपने
चलते ही उसकी ट्रेन को छुड़वाकर हाथ थामा है उसका ?

ग़ुलाब और रजनीगंधा की महक़ का रिवाज़ सबको मालूम है ----------------------------
लेकिन प्रेम में कभी आपने
नाक पे कपडा बाँधकर उसके लिए निहारी पकायी है ? 

इश्क़ में चाँद तारे तोड़ लाने का मुहावरा कानों से खूब गुज़रता है-------------------
लेकिन प्रेम में कभी आपने
पूरी रात खिले तारों के नीचे ठिठुरन में बितायी है ?

दिल की बात कहने को कोई दीवान रट लेने में बुराई नहीं -----------------
लेकिन प्रेम में कभी आपने
अपने इश्क़ की दरग़ाह पर अकेले दीवाली मनायी है ?

सात जन्मों और जन्मों-जन्मों तक बंधना /बांधना सुख है----------------
लेकिन प्रेम में कभी आपने
ख़ुद ही उसकी खातिर प्रेम को आज़ाद छोड़ा है ?

बादलों से पार एक छोटा सा घर सभी बनाते हैं अपनी आँख में ---------------
लेकिन प्रेम में कभी आपने
अपनी आँख में बर्फ़ के पहाड़ पर झोपडी जलायी है ?

मोहब्बत की आग में जलते हुये अलकों] पलकों की छाँव का पता सबको है -----------------
लेकिन प्रेम में कभी आपने
जून की तपती दोपहर अपने सिर पर साल दर साल बितायी है ?

सावन ,बसंत और फ़रवरी में रोमानियत सबके बाग़ में खिलती है -------------------
लेकिन प्रेम में कभी आपने
तोप के मुहाने पर बाँधने को पहला प्रेम-पत्र चुना है ?
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कंचन
जानते कितना हैं हम ------------------
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तुम्हारे धूम थ्री के संगीत के बीच में भी
मैं अपनी माँ का गाया *सासुल पनिया * गाती हूँ
तो तुम्हें गुस्सा क्यों आता है ?

तुम्हारे तारकोवस्की के सिनेमा के बीच में भी
मैं स्टोव की लौ में जली अपनी पड़ोसन को ही देखती हूँ
तो तुम्हें हैरानी क्यों होती है ? 

तुम्हारे संस्कृत उवाच के संगीत के बीच में भी
मैं अपनी दादी की कहावतें ही बुदबुदाती हूँ
तो तुम्हें खीज क्यों आती है ?

तुम्हारे कैनवास की भव्य कलात्मकता के बीच में भी
मैं नयी उंगलियो से खींची गयी टेढ़ी लकीरों को ही देखती हूँ
तो तुम्हें बहुत जोर से हँसी क्यों आती है ?

तुम्हारे झंडे के नीचे उठे चीखों के शोर के बीच में भी
मैं अपने हाथों से एक नया स्मारक खड़ा करके आती हूँ
तो तुम्हें पुरानी तारीख़ क्यों याद आती है ?
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कंचन
पाठ कहाँ से आता है ------------------?
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सिखाया तो यह भी बचपन से जाता है
'आपस में हम भाई भाई '
लेकिन यह समझने में
वर्षों लग जाते हैं कि
यह इस पाठ की ज़रूरत क्यों थी ?

खूब देशभक्ति के गीत गाये स्कूल में 
लेकिन जीवन में जो सच देखा
वह पाठ कहाँ से आता है?

देशभक्ति के गीतों से रोंगटे खड़े होते
उनमें ख़ून बहाने वाले वीर और योद्धा कहलाते------

लेकिन सरेआम सड़को पर
आम जनता का क़त्ले-आम !!
यह पाठ कहाँ से आता है ?

खूब सिखाया पढ़ाया जाता
'यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता '
कन्या पूजन और नारी शक्तिरूपा की कहानियाँ भी-------

लेकिन डायन,घायल और घसीटी जाती नंगी,
चीखती और मृत स्त्री की दुनिया !!
यह पाठ कहाँ से आता है ?

'मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ' और
'वसुधैव कुटुंबकम ' का पाठ
हम सभी ज़रूर-ज़रूर पढ़ते हैं-------------

लेकिन नस्ल, जाति, भाषा ,क्षेत्र के अलग होने से ही
हत्या,अलगाव ,अकेलापन और आत्महत्या !!
यह पाठ कहाँ से आता है ?

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कुछ ही दिनों पहले छह लोग असम में मारे गये हिन्दी भाषी होने के कारण
यह एक खास क्षेत्र और राष्ट्र भाषा का मामला मानकर सब चुप रहे
क्या यह पहली बार हुआ ? पहले भी होता रहा है ---------------
कब तक चुप रहोगे ?
पाठ कब सही होंगे ?

कुछ ही रोज़ पहले नस्ल और संस्कृति की दुहाई देकर हमने अपना रंग बता दिया
यह एक खास रंग और खास देश का मामला मानकर सब चुप रहे
क्या यह पहली बार हुआ ? पहले भी होता रहा है ---------------
कब तक चुप रहोगे ?
पाठ कब सही होंगे ?

क्या इसलिए कि मरने वाले सड़क पर मरते हैं
और पाठ बंद कमरे में होते हैं ?

हम कब पाठ बदलेंगे ?
हम कब पाठ को सीधे जीवन की सड़क से जोड़ेंगे ?
बचपन कब तक आश्रम कुटीर बना लताओं और पुष्प गुच्छों से सजा रहेगा ?

पुस्तकों के कवर पेज पर बस्ता टाँगे बच्चे प्रभात फेरी में देशभक्ति के गीत गायेंगे
और पड़ोस में हुए क़त्ल से अनजान ईयरफ़ोन लगाकर कार्टून देखेंगे !!

सही रास्ता निकालता कोई कलाकार
बदहवास शक्ल में खोया-खोया लगता रहेगा तब तक
जब तक हम पाठ नहीं बदलेंगे!

मुस्कानें आग में बदलकर जलाएंगी हमे तब तक
जब तक हम पाठ नहीं बदलेंगे!

हम कब पाठ बदलेंगे ?
हम पथ कब बदलेंगे ???
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कंचन
गौतम आज क्यों याद आये---------------?
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कई साल पहले पढ़ा था काव्य ; जिसमें 
गौतम के चले जाने पर यशोधरा ने कहा- 
''सखि वे मुझसे कहकर जाते 
कह तो क्या मुझको वे अपनी पथबाधा ही पाते 

जाएँ, सिद्धि पावें वे सुख से 
दुखी न हों इस जन के दुःख से ,
उपालंभ दूँ मैं किस मुख से ?
आज अधिक वे भाते ! ''

सुबह की खबरों में पत्नी कह रही थी
कि पैंतालीस साल पहले
जब वह सत्रह साल की उम्र में
पढ़ाई छोड़कर अपने पति के घर गयी
तो पति ने कहा कि वे देश भर में भ्रमण करेंगे
ऐसे में पत्नी उनके साथ चलकर क्या करेगी ?
उसे अपनी पढ़ाई पूरी करनी चाहिए ----------

पत्नी ने भी उनके साथ चलने की इच्छा जतायी ---
पत्नी जब ससुराल जाती तो वे उससे मिलने नहीं आते
अब पत्नी ने अलग होने का फैसला लेकर
अपनी पढ़ाई मायके में पूरी की ---------

इसे पति का छोड़ना माना जाये या
पत्नी का खुद ही अलग हो जाना !!

बीते पैंतालीस सालों तक
आत्मनिर्भर होकर अकेले जीवन जिया
लेकिन फिर पत्नी की तरह अपनी प्रार्थना में
पति के आगे बढ़ने के लिए प्रार्थना की।

एक दूसरी ख़बर में भी
पत्नियाँ प्रार्थना कर रही थीं -------
उनके पतियों की नौकरी
प्लांट बंद होने से चली गयी थी
और बाद में पतियों को जेल भी हुयी
पत्नियाँ प्रार्थना के साथ
छोटी नौकरी करते हुए
बच्चे भी पाल रही थीं और
धरने पर भी जाती थीं
उनके बच्चों ने माँ के बाद
दूसरा शब्द जिंदाबाद और मुर्दाबाद सीखा।

एक और ख़बर में ईट के भट्टे पर
पति के साथ काम करती पत्नी
बंजारे का जीवन जीते हुए
न कोई प्रार्थना करती है
न उसका पति उसे अकेले छोड़
भ्रमण पर कहीं जाता है-------------

क्यों गौतम का जाना और
पत्नी की प्रार्थना आज महत्वपूर्ण हुयी ?
पत्नी की ज़िंदा रहने की लड़ाई
और भ्रमण की इच्छा वर्षों तक ख़बर नहीं बन सकी।

गौतम का जाना और
यशोधरा की प्रार्थना का काव्य
आज फिर क्यों याद आया !
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दहशत में बच्चे पलते हैं !!
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तुम लड़की को सड़क पर दबोच सकते हो 
तुम युवा को सड़क पर पीट पीटकर मार सकते हो 
तुम प्रेम की सजा में सामूहिक बलात्कार करवा सकते हो 

तुम भीड़ बनकर सड़क पर नारे लगा सकते हो 
तुम ज्ञानी होकर नये नये कानून बना सकते हो 
तुम शांत होकर धर्म की राह दिखा सकते हो 

तुम ज़िन्दा नहीं कर सकते सड़क पर मारे गये लड़के को
तुम ज़िंदा नहीं कर सकते हॉस्पिटल में मरी लड़की को
तुम लौटा नहीं सकते उसकी खोयी अस्मिता को

तुम्हें पता है! तुम मिटा नहीं पाये उसकी पहचान
जिस पर तुमने एसिड डालकर चेहरा बिगाड़ा
तुम मिटा न सके उसकी अंधी आँख में जीते सपने
तुम उसके दिल का प्रेम भी कहाँ मार पाये
जिसे प्रेम करने पर सामूहिक बलात्कार करवाया

तुमने मार डाली अपनी इंसानियत और
अपने बच्चों के दिलों में दहशत भर दी
तुम्हारा पता हम सबको मालूम है
तुम सड़क पर ताकतवर भीड़ हो
और घर के अंदर दर्द में सने लाचार हो

तुम सिर पर उड़ती शातिर चील हो
जिससे अपने बच्चों को बचाना है
भीड़ की दहाड़ के बीच में घुसकर
खोये हुए इंसान का चेहरा उगाना है

नहीं ! यह सब कोरी बकवास और बुदबुदाहट है
सच यह है कि मैं शर्मिंदा हूँ और दहशत में हूँ
अपने बच्चों की फ़िक़र में सुकून की तलाश में हूँ

मैं सड़क पर हूँ ………………………
सड़क पर दहशत है ……………
दहशत में बच्चे पल रहे हैं………
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डोर या उड़ान----------------------------- !
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जो उड़ा नहीं सकते
आसमान में अपनी पतंग ...................

वे कटी रंगीन पतंग को
अपनी छत पर
लूट लेने के इंतज़ार में
दिन भर अपनी नज़रों से उड़ान भरते हैं.…… 

उनकी नज़रों की पतंग
किसी के हाथ में नहीं होती
वह अपनी रौ में उड़ती आती
बिना डोर की रंगीन पतंग
किसी बसन्त के दिन …………

पतंग की ख़ूबसूरती
उसके रंग में है
उसकी डोर में ……

या खुले आसमान में
उसकी उड़ान में !

पतंग जो उड़ते उड़ते
पेड़ में अटके
फट जाए !

कश्ती जो बहते बहते गल जाए!

और दिल
उसका क्या ……………

(पतंग और कश्ती काग़ज़ की
और दिल सीसे का क्यों बनाया )

बसंत ,बरसात और
बरस दर बरस की ये बातें

उनकी बातें !!

या कटी पतंग को देखती
उड़ान भरती नज़र ------------------------
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कंचन
धीमी आवाज़ का शोर …… 
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उसकी दबती धीमी आवाज़ को 
तेज कर सकने की हिम्मत मुझे चाहिए 

नहीं सुननी उसकी आवाज़ केवल अपने कान में 
चाहती हूँ कि उसकी आवाज़ और उसकी पीड़ा से
गूँज उठे यह धरती और बृह्मांड 

उसे धीमे से कहने की आदत है
उसमें प्रतिष्ठित लोगों के सामने घबराहट है
वह चाहकर भी चीख नहीं पाया कभी
उसकी पीड़ा में घुट गयी उसकी आवाज़ की तेजी

उसने बच्चों को देखा तेज दौड़ते हुए
उसने बच्चों की तेज आवाज़ को भी सुना
उसने भी औरों की तरह तेज़ दौड़ना चाहा
उसने भी औरों की तरह तेज बोलना चाहा

लेकिन उसके पाँव औरों की तरह नहीं थे
उसे कोई नहीं दे सकता सामान्य पाँव
लेकिन उसकी दबी हुयी आवाज़ तो तेज हो सकती है

उसकी धीमी आवाज़ उसकी घुटी हुयी पीड़ा है
उसकी दबती आवाज़ को तेज किया जा सकता है
उसके हौसले को ऊँचा करने की कोशिश में
उसकी आवाज़ भी ऊँची उठती जायेगी क्या ?

उसकी आवाज़ को तेज चीखना सिखाना है
उसकी घुटन को उससे बाहर निकालना है
उसके बँधे हाथ कंधे से ऊपर तक खड़े करने होंगे
उसका हाथ सिर्फ़ कोहनी तक ऊपर उठता है

कितना संकोच है उसके हाथों में, उसकी आवाज़ में
उसके मन की पीड़ा में,उसके मन की जरूरतों में

वह धीमी आवाज़ में तेज़ गति से जल्दी से
अपनी बात कहकर चुप हो जाना चाहता है
लेकिन अपनी आँखों के सपनों में वह चुपचाप
ख़ुद को किसी ऊंचाई पर अकेले देखता है

सपने देखने वाली उम्र में बच्चे तो
"शोर वाली जेनरेशन" का ताना सुनते हैं
लेकिन वह तो तेज आवाज़ निकालने के संकोच में
धीमे से ही कुछ कहकर जल्दी से शांत हो जाना चाहता है

मैं उसकी धीमी आवाज़ से उठती
किसी आक्रामक बैचेनी में हूँ

उसकी दबती धीमी आवाज़ को तेज़ करने की हिम्मत चाहिए ……
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