Friday, February 21, 2014

दस्तक !....
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मैं जिस प्रदेश में पैदा और पली बढ़ी हूँ
ससुराल का परिवार उससे अलग प्रदेश में रहता है
मैं अपने एकाकी परिवार के साथ राजधानी में रहती हैं
मैं कई प्रदेशों के रचनाकारों को पढ़ती रहती हूँ
कई विदेशी रचनाकार भी मेरे दिल से लगे हैं

अब मैं किस प्रदेश के साहित्यकारों के साथ फोटू खिंचवाऊँ ?…… 
इसी उधेड़बुन में मेले में कई बार आती जाती रहती हूँ
पुस्तकें यह सब भाँपकर खूबही खूब दाँत निपोरती
और कहकहे लगाती मेरे साथ घर चली आतीं हैं

क्यों न फोटो- फ्रेम के इस फ़ेर से निकल जाऊँ
किसी पन्ने पर कोई कविता बन बिखर जाऊँ
कल फिर से एक और बार मेले में घूम आऊँ

भाभी (जेठानी) कहतीं कि
"अच्छा लगता है कि तुम समय निकाल लेती हो
कितनी किताबें पढ़ कैसे लेती हो ?"
क्या कहूँ कि " जेठानी ननद सास साथ रहती तो
थोडा पापड़ ,अचार ,एक साथ बैठ बनाते
थोडा झगड़ा भी करते तनातनी के साथ.....
सिंधी कढ़ाई के साथ क्रोशिये की झालर लगा मेजपोश बनाते।"
अब यह किताबी संसार ही मेरा स्वाद, मेरा ससुराल है
शब्दों के संग होली है तो
किसी नये विचार की कौंध मेरी दीवाली है
जैसे ससुराल में बदल दिए जाते हैं पहले सीखे सारे स्वाद
ऐसे ही यहाँ भी कोई एक कहानी ने छीन लिया है
बरसात में चाय पकौड़ी का स्वाद....
किसी किताब ने खोलकर रख दी
दोगले समाज की साजिशों की परतें
यह किताबें सारे सत्यों के साथ
मुझे ज़िंदा रखती हैं

मैं दीवारों से बने घर में कहाँ रह पाती हूँ
इस किताबी तिलिस्म की राहों में दिन रात
अपनी तिहाई सुनती थिरकती हूँ

मैं लब्ज़ों के आग़ोश में हूँ
किताबी लिहाफ़ को ओढ़े हुये !

कवरपेज के रँग बिखरे हुए हैं
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुयी है
शायद नयी क़िताब का पता आया है
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कंचन
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