Friday, February 21, 2014

क़सूर किसका ?
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सड़क पर सहपाठी लड़के
रास्ता जाम किये हुए
अपना क्रोध / प्रतिरोध
दिखा रहे थे …

नारों में सवाल
गूँज उठे थे 
लेकिन फ़िज़ा में
एक चीख़ थी.…

सोलह साल की लड़की
कच्ची धूप से उठकर
धुएँ में जा चुकी थी
उसके सपनो का बसंत
लाल रंग में दहक उठा था

उसका कसूर थी
उसकी नोटबुक
जो अब उसके
रहबरों के हाथ में थी ....

नोटबुक में रखा हुआ
एक काग़ज का टुकड़ा
चुगली कर गया
उसमें स्वीकृत था
आमंत्रण खुली हवा ....

लड़की के एक तरफ़
उसके सपने खड़े थे
और दूसरी तरफ़ थी
उसकी वह साँकल
जिसे परवरिश और
इल्म की रवायतों ने
तेज़ आवाज़ में खटखटाया था …

लड़की ने इधर देखा न उधर
उसने सामने की सीधी राह पर
लगा दी ऊँची छलांग
चौथी मंज़िल से....

वह कच्ची धूप से धुँआ बनी
अपने सपनों से आलिंगनबद्ध
खुली हवा में जा मिली …

नीचे की सड़क पर
साथी लड़के उतरे हुए
सड़क जाम किये थे.…

सड़क से सारी लड़कियाँ
ग़ायब थीं एक साथ !
शायद अपने लिए नयी दुनिया
बनाने की राह पर चलते- चलते
कसूरवारों की लम्बी सूची बनाने में
दिलोजान से लगी थीं ....

सवाल एक ही कसूर किसका ?
परवरिश के धागों का या
इल्म की साँकल का या
खिली धूप और खुली हवा के सपने का …

आख़िर क़सूर किसका?

जब लड़की ने आमंत्रण स्वीकार किया
तो उसका चेहरा काला कर दिया आज !

बीते कल में जब उसने अस्वीकृत किया
तब भी मिटायी उसकी पहचान और चेहरा !!

लड़कियाँ आज अपने शहर के बाहर
खड़ी थीं अपने सपनों के आग़ोश में
धुँआ बनी लड़की ने जान ली थी
क्रांति के कर्णधारों की हकीक़त
जो धुआँ बनी लड़की के बदन से लिपटी थी

कोई विद्यालय आज खुल न सका
स्कूल की घण्टी मौन हिचकियों में
ख़ौफ से आँखें फाड़े
दफ़न हो रही थी अपनी क़ब्र में

आज
दुआ में उठा न था कोई हाथ
हाथों में लिपटी थी
परवरिश और इल्म की
भारी एक लाल साँकल …

साँकल जो बज उठती थी
घनी अँधेरी रात में अचानक
आती थी एक हल्की आवाज़
जो सवाल करती
''कसूर किसका ''?

सवाल के शोर के बीच
कच्ची धूप सी धुआं बनती लड़की
बड़ी जोर से खिलखिला पड़ती। ....
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कंचन

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