Saturday, April 18, 2015

स्वाद,शब्द और स्मृति :
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दो सप्ताह पहले माँ मेरे घर आयीं। मैंने एक दिन अरबी की सब्जी बनायी। खाने के बाद कहने लगीं कि आज तो तुमने बिलकुल वैसे स्वाद की सब्जी बना दी है जैसी पापा के सामने सालों पहले बनती थी। ऐसी तो अब हम भी नहीं बनाते। मैं सिर्फ मुस्कुरा पायी। कहा नहीं कि मैं तो हर त्योहार पर दादी की पसंद की दाल की कचौड़ी ,अरबी,कद्दू की सब्जी बना लेती हूँ। जिस बहन को ससुराल वालों ने मार दिया उसके पसंद की चटनी और तेहरी बना लेती हूँ। सास के स्वाद की याद में सब्जी मसाला पीसकर कालीमिर्च की मसालेदार सब्जी बना लेती हूँ। कभी -कभी नानी के घर वाली बिलकुल फीकी दाल भी बनाती हूँ। पता नहीं क्यों मुझे स्वाद और व्यक्ति की पसंद का जुड़ाव बहुत महत्वपूर्ण लगता है। जब चिट्ठियाँ लिखने का चलन खूब था तब बहुत बार दिवाली की रात और होली के हुड़दंग के समय हम अपने कमरे में बैठ दोस्तों और रिश्तेदारों को चिट्ठियाँ लिखा करते थे। क्योंकि लड़कियाँ न तो घर से बाहर निकल सड़क पर रंग खेलतीं और न ही दिवाली के पटाखे और जुए के खेल खेलती। हम अपने समय में किसी को स्वाद से याद किया करते हैं तो किसी को शब्दों से।

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