Saturday, April 18, 2015

हिम्मतें सब अब पस्त हुयी मरणासन्न हैं
किसी नई बहस / किताब की आहट ज़िंदा है
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आग की लपटों से लिपटी
ज़िंदा भागती स्त्री

निर्वस्त्र करके सड़क पर
घुमायी जाती स्त्री
जिसे कभी देखा नहीं
जिससे कभी कुछ कहा नहीं
उसके हाथों नोची जाती स्त्री
बहते ख़ून और तड़पती चीख़ के अलावा
सिवा मांस का लोथड़ा बनने की नियति के ?
क्या बचा कोई वज़ूद स्त्री का !!
यह गाँव ,शहर , मेट्रो सिटी
हर जगह का चित्र है
यह नया कैनवास पुरानी सीखों में नहीं समाता
-किसी पुरुष से कुछ भी न कहना
दुश्मनी होगी तो खामियाजा उठाना होगा
-सुनसान रास्तों से न गुजरना
-अजनबी के पास न जाना
-सिर्फ जानने वालों से मिलना
- जहाँ कहा जाये सिर्फ़ वहीं जाना
शादीशुदा /उम्रदराज /दो बच्चों की माँ /
जिसने किसी को कुछ नहीं कहा
जो प्रेमी के साथ भी नहीं गयी
कहीं भी कोई स्त्री सुरक्षित नहीं
दहशत में पड़ी है स्त्री -देह,और मन,
वज़ूद तो चीथड़ों की शक्ल में छितराया है
चोट नाज़ुक अंगों पर होती है
लेकिन तड़प और दर्द का एहसास
ज़ुबान और हौसलों को तोड़ता है
कितनी दहशत में जीतीं है लड़कियां
घर के भीतर भी और बाहर भी।
सड़क पर भी बहता है उनका ख़ून
और स्कूल की चौखट पर भी।
नहीं ,कोई लफ़्फ़ाज़ी हौसला सामने खड़ा नहीं है
हाँ , स्त्री भय में लिपटी दहशत के आग़ोश में है।
मेरे सामने रखा हुआ आइना आज
मुझसे पहली सी सूरत नहीं मांग रहा
आईने में पड़ती कौंध में जगमगा रहा है
पीछे रखी पुस्तक का प्रथम पृष्ठ -
'' चूँ कार अज़ हमां हीलते दरगुज़श्त
हलालस्त बुर्दन ब -शमशीर दश्त।।''
जब दूसरे सब रास्ते कारगर न हो सकें तो
ज़ुल्म के ख़िलाफ़ तलवार उठा लेना जायज़ है।
घबराहट में पुस्तक बंद करते ही
आईने में चमकने लगा कवर पेज
'साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित '…।
भारी दहशत में उतार दिए सब आईने
तोड़कर फेंक दिए घर के बाहर
काँच टूटकर धंस गया है नाज़ुक अंगों में
लहूलुहान हैं दोनों पांव ,और
दरक रहा है वज़ूद।
हिम्मतें सब अब पस्त हुयी मरणासन्न हैं
किसी नई बहस / किताब की आहट ज़िंदा है
द्रौपदियों ने मिलकर पुकार कोई उठा ली है
मिटते वज़ूद की चीखों ने नींद ,भूख उड़ा दी है
दहशत से आसमान मेरा काला है
कोई रास्ता कहीं नज़र नहीं आता
इंसानियत का मुझसे नहीं कोई नाता
सिर्फ शब्दों में मन नहीं रमता
मुझको घेरे है घना कुहाँसा
आसमान से कतरे गए पंखों की बारिश जारी है
दूर- दूर तक वज़ूद मिटाने की मुसलसल तैयारी है।
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