Saturday, April 18, 2015

मेला हमारा अरमान है ,अज्ञान नहीं !…
___________________________
धर्म है तो मेला है,
…… तो अरमान है,
बच्चों को मेला दिखाना है ,
महिलाओं को मेला देखना है ,
बच्चे गए ,महिलाएं गयीं।

मेले में भगदड़ हुयी ,
बच्चे गिरे ,महिलाएं गिरीं ,
बच्चे मरे,महिलाएं मरीं।
क्यों गिरीं महिलाएं ?
क्यों संभाले नहीं बच्चे ?
गयी ही क्यों मेले में ?
अच्छे कपड़े पहने हुए महिलाएं
ऊँची ऐड़ी की हील चप्पलें जो
खास मेले वगैरह जाने के लिए खरीदी थीं
जिन्हें पहनकर चलने की आदत भी नहीं
न ही महिलाओं को भीड़ में चलने की आदत
मेले की भीड़ में चलने वाली औरतें
कभी मेले ठेले ही तो बस घर से निकली होती हैं
उन्हें कहाँ आदत भीड़ में जाने की/चलने की .....
मेले में जाने वाली औरतों को
कहाँ होती है कहीं जाने की छूट
घर के आदमी ने मना किया होगा तो
कई पड़ोसिन के नाम निकाल लिए होंगे
घर का आदमी भी तो बस
रोज़ काम पर ही जाता है
तनिक मेले में ही तो
मन बहलाने जाते हैं अरमान
नए गमकते कपड़े पहने हुए,
बच्ची के गुब्बारे और सीटी के साथ।
मेला, मतलब बहुत सारे लोग
रोज़ की बदरंग ज़िंदगी से अलग
अच्छे कपड़े पहने हुये
कुछ देर अरमान जी सकें,
फिर से खटने की तैयारी के लिये।
रोज़ जूझते लोगों को मेले का अरमान
भुला देता है हर बार की हुयी भगदड़ और मौतों को।
व्यवस्था तो थी बस 'अँधेरे ' का शिकार हो गयी
अरमान जनता के फिर भी अँधेरे में ज़िंदा रहते हैं
धर्म है तो फिर होगा मेला ,फिर होगी भीड़ ,
फिर जायेंगी औरतें बच्चों को लेकर मेले में।
खुले आसमान में जाने और मिलने जुलने का अरमान
हर ख़ूनी त्रासदी को भगवान की माया में बदल देता है
अरमान ज़िंदा रहेंगे हर मेले के लिए फिर
अँधेरा और अव्यवस्था कितनी भी हो ?
मेले में बिछड़े भाईयों की तो कितनी पुरानी कहानियाँ हैं
भगदड़ की भयानक तस्वीरें हालिया ज़िंदा हैं स्मृति में
तो क्या व्यवस्थापकों का मुँह देखकर बंद हो जायेगा मेला ?
व्यवस्थापकों!
तुम देख लो तुम्हें कितना ख़ून चाहिए हमारा ?
गमकती साड़ी और ऊँची ऐड़ी के सैंडिल और
बच्चे की सीटी का अरमान जब तक है ,मेला रहेगा !
हम छोटे- छोटे अरमानों पर ज़िंदा रहने वाले लोग हैं
मेले में जाते हैं,'मेला' हमें विरासत में मिला अरमान है।...
______________________________________________________

No comments:

Post a Comment