Saturday, April 18, 2015

भाषा के गंभीर विमर्श के बरक़्स
रोज़मर्रा के जीवन की हक़ीकत : भाषा में क्या रखा है ?
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"जो तुम कुछ कहो तो मैं ध्यान न दूँ
और मैं कुछ कहूँ तो तुम इग्नोर करो"

आपसी समझदारी से
गृहस्थी ,सरकार ,और दुनिया
चलती रहती है.…
…चला लेने का यह गूढ़ मन्त्र
प्रौढ़ अक्सर दिया करते हैं। …
"हमारे सम्बन्ध की ईमानदारी महत्वपूर्ण बात है
भाषा में क्या रखा है .....?"
न जाने कितने प्रेम करने वालों ने
अपने अल्फ़ाज़ कभी मुखर ही नहीं किये
या प्रेम की बात आते ही
उलटबांसी शुरू करके निकल लिए.……
भाषा में क्या रखा है ......?
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(एक किस्सा कई लोगों से सुना -
एक पति पत्नी कभी लड़ते दिखाई नहीं दिए। पड़ोसियों ,सम्बन्धियों को फिक्र हुयी।
पूछने पर पति ने ईमानदारी से बता दिया कि
''सुबह जब ऑफिस जाते समय मेरे मोज़े,चाबी, नहीं मिलते या किसी और बात पर चिल्लाता ,चीखता हूँ
तो पत्नी आराम से चुपचाप किचन में खाना/टिफ़िन बनाती रहती और चुपचाप सब सुन लेती है.।
शाम को जब मैं घर लौटता हूँ तब पत्नी बच्चों की शिकायत करती है और मेरी लापरवाही और काम गिनवाती रहती है
मैं चुपचाप सब सुनता राजनीति की ख़बरें सुनता रहता हूँ। …इस तरह हमेशा मेरा गृहस्थ फलीभूत रहता है।'' )
'जैसे बहुरे इनका गृहस्थ वैसे सबका हो ' की तर्ज़ पर अक्सर लोग इस फॉर्मूले पर भी सफल गृहस्थ निभा लेते हैं।
इनका भी सार यही - भाषा में क्या रखा है ?
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(भाषा ,साहित्य ,विमर्श और शोध से जुड़े लोगों को इन बातों पर समय क्यों बर्बाद करना चाहिए ?)

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