बारह से सोलह साल की लड़कियाँ अगर अपनी पीरियड्स की तारीख याद न रख पाएँ और
अपनी यूनिफार्म के खून से लाल रंगे होने पर शर्मिंदा हों और इस बात के लिए
उन्हें टीचर से भी डाट पड़ रही हो। यह सहने के बाद स्कूल की छुट्टी होने तक
उन्हें उसी रंगी सनी यूनिफार्म में चुपचाप गुनहगार की तरह एक कुर्सी पर
बैठे रहना पड़े। और फिर किस तरह स्कूल बैग से पीछे दाग को छुपाते -छुपाते
आँखों में आँसू भरे घर जाना पड़े तो इस तकलीफ़ को वे नहीं समझ पाएंगे जो
जागरूक और सुविधा संपन्न परिवारों और विद्यालयों में पढ़े या
पढ़ रहे हैं या लड़के हैं। स्कूल ऐसे विषयों पर कॉउंसलिंग में भी हिचकता
है। आखिर तहज़ीब भी कोई चीज़ है कि नहीं। दरअसल अनपढ़ माएँ सलीका नहीं सीखा
पायी होंगी या फिर अल्हड़ लड़कियाँ ही बेखुदी में तारीख भूल जाती होंगी। और
सुविधा भी नहीं होती कोई । शौचालय तक नहीं होते और होते तो गंदे। ऐसी
तहज़ीब को गोली मारकर जादवपुर विश्वविद्यालय की लड़कियाँ खुद ही आगे निकल
पड़ी टैबू तोड़ने। शायद कोई राह लड़कियाँ खुद ही निकालने को तुली हैं। ndtv
चैनल पर बरखा दत्त का कार्यक्रम नहीं देखा क्या ?
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