Saturday, April 18, 2015

उम्र,सरोकार और जीवन साथी …!
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एक तरफ अंत समय तक कैंसर से संघर्ष करती आर. अनुराधा हैं जो अपनी बीमारी से जूझते हुए भी अंत समय तक दूसरों की ज़िंदगी से सरोकार रखे हुए थीं।दूसरी तरफ 'नया ज्ञानोदय ' में छपे दो स्मृति लेख हैं जिसमें एक में पवन करण के पिता जो तपेदिक से अंत समय तक जूझते रहे और साथ-साथ अपने अकेलेपन से भी। पवन करण खुद भी पिता के संघर्ष में शामिल रहे। लेकिन पिता अक्सर सबको दूर हटा देते। जैसे किसी से कोई सरोकार न हो।
दूसरे लेख में रजनी गुप्त के पिता जी हैं जो अपने गांव और अपनी पत्नी के गांव दोनों से एक साथ सरोकार रखे हुए थे। वह उनकी युवा उम्र थी वृद्धावस्था नहीं, क्या इसलिए ? वृद्ध आर. अनुराधा भी नहीं थीं क्या इसलिए सरोकार इतने अधिक थे। यवा उम्र के कारण सरोकार खुद से कहीं अधिक होते हैं क्या ?
पवन करण के पिता और रजनी गुप्त की माता जी दोनों ने अपने जीवन की कठोरता सही और सहते- सहते दोनों इतने कठोर बन गए कि खुद अपने बच्चों से भी सरोकार कम हो गए (वृद्ध उम्र और जीवन की कठोरता के कारण)। वृद्धावस्था में जीवन की कठोरताएं शरीर को कमजोर करने के साथ मन को इतना कठोर कर देती हैं कि अपने ही बच्चे उस वात्सल्य की एक बूँद भी आँखों में या आवाज़ में तलाशने लग जाएँ। ……
… तो वह दादा- दादी या माता -पिता कौन होते हैं जो अंत तक अपने बच्चों की छाँव बने रहते हैं।
और वह ऊर्जा भी जो पूरे गांव से तो सलाह सरोकार रखती है लेकिन अपने ही बच्चे पास या दूर रहते हुए सरोकारों से दूर छिटक जाते हैं।

(क्या मैं यह कहना चाह रही हूँ कि युवा ऊर्जा से सरोकार हमेशा बने रहें। …वृद्धावस्था में भी मेरे सरोकार इतने कठोर कभी न हों कि अपने ही बच्चे किसी छाँव की झलक देख लेने को छटपटा जाएँ। यहाँ निजी तौर पर किसी भी वृद्ध के प्रति कोई दुराभाव या आरोप नहीं है न ही कोई सरोकार के कटघरे में है।)
…बस एक इच्छा भर है कि किसी के कोई सरोकार कम न हों। …कोई अकेला न हो।
नहीं ,आर.अनुराधा के अकेले होने का सवाल ही नहीं,पति दिलीप मंडल अंत समय तक साथी मित्र रहे।
पवन करण अपने पिताजी के लिए और सब कुछ बनकर भी उनका अकेलापन दूर नहीं कर पाये। क्योंकि पत्नी नहीं बन पाये जो की बन भी नहीं सकते थे।
रजनी गुप्त की माता जी भी लम्बे समय से अकेले जीवन संग्राम से जूझते हुए ही कठोर बनती गयीं।
सचमुच ! पति / पत्नी के रूप में जीवन साथी का साथ होना इतनी बड़ी मानवता है ?
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