वे सदैव संवेदनशील रहे , बौद्धिक रहे ,प्रबुद्धों के कद्रदान रहे। उनके
जैसे ज्ञान का दूर-दूर तक कोई उदाहरण नहीं। उनके आस-पास ही नहीं दूर-दूर तक
के लोगों ने उन्हें ऐसा ही जाना। संवेदनशील होने के नाते उन्होंने हमेशा
न्याय की बात की। इसीलिए हर संस्था में उनका नाम आदर के साथ शीर्ष पर रहा।
बात यहीं ख़त्म नहीं होती। वे पारस हो गए। जिस पर हाथ रख दें वह सोना हो
जाए। उन तक पहुँचने की होड़ में लोग कुछ भी कर गुज़रने को तैयार। .... उनके
नाम की सिफ़ारिश का मिल जाना मतलब आराध्य के चरणों की पावन,
कल्याणकारी ,पवित्र धूल मिल जाना। उनकी भेजी सिफारिश के आगे किसी की भी
औक़ात धूल में मिल जाए। चाहे वह सेवा से मिली हो या किसी अन्य कारण से.....
। संस्थाओं ने कभी उनके विरोध में मुँह नहीं खोला। भले ही अपने नाम पर
पक्षपाती होने का दाग़ लगा लिया हो। आखिर शीर्ष पर किसी को तो रखना ही होगा।
महत्ता शीर्ष से ज्यादा तो उस गर्दन की है जिस पर शीर्ष टिका है।
इस खबर से क्या फ़र्क़ पड़ेगा कि अस्पतालों में स्पोन्टिलाइटिस के मरीज़ बढ़ रहे हैं.....
आँखें ठीक हैं लेकिन नज़र के चिकित्सकों की बढ़त बनी हुयी है।
इस खबर से क्या फ़र्क़ पड़ेगा कि अस्पतालों में स्पोन्टिलाइटिस के मरीज़ बढ़ रहे हैं.....
आँखें ठीक हैं लेकिन नज़र के चिकित्सकों की बढ़त बनी हुयी है।
क्या अब भी मुझे उन्हें संवेदनशील और प्रबुद्ध मानते रहना होगा जबकि वे पारस बनते- बनते पत्थर बन गए ?
(बंद मुँह से बोलते हुए )
(बंद मुँह से बोलते हुए )
No comments:
Post a Comment