Thursday, February 27, 2014

आहटों का तांडव …
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तीन पग में पूरी धरती
नापने का सपना देखने वाली औरत
असल ज़िंदगी में एक सड़क तक
अकेले पार नहीं करती !…

जब आदेश मिलता है
तो अकेली होने पर ज़हरीले जंगल में भी 
पाल पोसकर तैयार कर देती है
दो वीर योद्धा …

फिर जब आदेश मिलता है
अग्नि -परीक्षा देने का
तो धरती फोड़ उसमें समा जाने का
हौसला रखती है

हौसले के कारण तो
टांग काट दिए जाने पर भी
एक औरत एवरेस्ट पर चढ़ गयी
एक औरत धरती में समा गयी
एक औरत ने गायब कर दीं
सारी सड़कें अपने ख़वाब में
और नाप ली सारी धरती
तीन पग में।

तीन पग में
धरती नाप लेने वाली औरत
अपनी खिड़की से
सड़क पार का चाँद नहीं ताका करती
वह भर लेती है अपनी दोनों आँखों में
चाँद और सूरज एक साथ
उसके हांथों की उँगलियों से
एक साथ झर उठते हैं
आकाश के टिमटिमाते तारे
जुगनुओं से भर गया है मेरा अहाता
किसी भैरवी की नयी बंदिश
अभी उठने को है....

हौसलों का डमरू
मेरे बादलों में गूँजता है
आहटों के तांडव से थिरक उठता है
कोई नटराज नयी मुद्रा लिए हुए …
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कंचन

Wednesday, February 26, 2014

एक सिगरेट के धुएँ की उम्र जितनी हँसी है मेरी
ये मेरी आवाज़ का जादू है कि आकाश गूंजता है
बादलों के सफ़ेद फाये !
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बंजर ज़मीन से टकराकर
बदहवास लौट आती है
दबी हुयी कोई चीख़
थके पांवों से बेहाल
छोड़कर अपनी चप्पलें
अपनी क़ैद में वापस !

फिर चढ़ जाती हैं नंगे पांव
ऊँचे ख़ूबसूरत पहाड़ों पर
लिपट-लिपट जाती है
हवा के किसी झोंखे से
उड़ जाती बादलों के फाये पर
बहने लगती है बेलगाम
तेज़ बहते पानी की लहरों संग

खिलखिला उठती है !
पानी की लहरों के बीच
किसी पत्थर पर बैठ
वह दबी हुयी चीख़
जो बरसों बाद
घर से बाहर भागती है.…

सुना नहीं गया उसे कभी भी !
न आज जब वह खिलखिला उठी
न तब जब उसे दबा दिया था जोर से

बहरे और गूँगे होने का चलन
अब हमारी चमकदार पहचान है

हम आबाद शहर के चौराहे पर हैं
जिसकी हर राह की मंज़िल
किसी वीरान बस्ती से मिलती है
जहाँ चीखें बेख़ौफ़ खिलखिलाती हैं

वीरान बस्ती का पता सबकी ज़ेब में है
ज़ेब में नन्हीं पाज़ेब खनकती है
ज़ेब में कोई लोरी सिसकती है
ज़ेब से जब निकल भागता है कोई मिल्खा
तब दुनिया के हाथों से ताली बज उठती है

वीरान बस्ती में हर रात
किसी थियेटर के मंच पर
यही रंगीन जश्न होता है
फ़िर कोई चीख बेख़ौफ़
खिलखिलाकर
बदहवास लौट आती है
किसी बंज़र ज़मीन से टकराकर
थके पांवों बेहाल
छोड़कर अपनी चप्पलें
अपनी कैद में वापस !

उसकी गोद में गिर पड़ते हैं
नीले बादलों के सफ़ेद फाये ....
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कंचन

Friday, February 21, 2014

जानते कितना हैं हम ------------------
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तुम्हारे धूम थ्री के संगीत के बीच में भी
मैं अपनी माँ का गाया *सासुल पनिया * गाती हूँ
तो तुम्हें गुस्सा क्यों आता है ?

तुम्हारे तारकोवस्की के सिनेमा के बीच में भी
मैं स्टोव की लौ में जली अपनी पड़ोसन को ही देखती हूँ
तो तुम्हें हैरानी क्यों होती है ? 

तुम्हारे संस्कृत उवाच के संगीत के बीच में भी
मैं अपनी दादी की कहावतें ही बुदबुदाती हूँ
तो तुम्हें खीज क्यों आती है ?

तुम्हारे कैनवास की भव्य कलात्मकता के बीच में भी
मैं नयी उंगलियो से खींची गयी टेढ़ी लकीरों को ही देखती हूँ
तो तुम्हें बहुत जोर से हँसी क्यों आती है ?

तुम्हारे झंडे के नीचे उठे चीखों के शोर के बीच में भी
मैं अपने हाथों से एक नया स्मारक खड़ा करके आती हूँ
तो तुम्हें पुरानी तारीख़ क्यों याद आती है ?
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कंचन
पाठ कहाँ से आता है ------------------?
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सिखाया तो यह भी बचपन से जाता है
'आपस में हम भाई भाई '
लेकिन यह समझने में
वर्षों लग जाते हैं कि
यह इस पाठ की ज़रूरत क्यों थी ?

खूब देशभक्ति के गीत गाये स्कूल में 
लेकिन जीवन में जो सच देखा
वह पाठ कहाँ से आता है?

देशभक्ति के गीतों से रोंगटे खड़े होते
उनमें ख़ून बहाने वाले वीर और योद्धा कहलाते------

लेकिन सरेआम सड़को पर
आम जनता का क़त्ले-आम !!
यह पाठ कहाँ से आता है ?

खूब सिखाया पढ़ाया जाता
'यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता '
कन्या पूजन और नारी शक्तिरूपा की कहानियाँ भी-------

लेकिन डायन,घायल और घसीटी जाती नंगी,
चीखती और मृत स्त्री की दुनिया !!
यह पाठ कहाँ से आता है ?

'मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है ' और
'वसुधैव कुटुंबकम ' का पाठ
हम सभी ज़रूर-ज़रूर पढ़ते हैं-------------

लेकिन नस्ल, जाति, भाषा ,क्षेत्र के अलग होने से ही
हत्या,अलगाव ,अकेलापन और आत्महत्या !!
यह पाठ कहाँ से आता है ?

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कुछ ही दिनों पहले छह लोग असम में मारे गये हिन्दी भाषी होने के कारण
यह एक खास क्षेत्र और राष्ट्र भाषा का मामला मानकर सब चुप रहे
क्या यह पहली बार हुआ ? पहले भी होता रहा है ---------------
कब तक चुप रहोगे ?
पाठ कब सही होंगे ?

कुछ ही रोज़ पहले नस्ल और संस्कृति की दुहाई देकर हमने अपना रंग बता दिया
यह एक खास रंग और खास देश का मामला मानकर सब चुप रहे
क्या यह पहली बार हुआ ? पहले भी होता रहा है ---------------
कब तक चुप रहोगे ?
पाठ कब सही होंगे ?

क्या इसलिए कि मरने वाले सड़क पर मरते हैं
और पाठ बंद कमरे में होते हैं ?

हम कब पाठ बदलेंगे ?
हम कब पाठ को सीधे जीवन की सड़क से जोड़ेंगे ?
बचपन कब तक आश्रम कुटीर बना लताओं और पुष्प गुच्छों से सजा रहेगा ?

पुस्तकों के कवर पेज पर बस्ता टाँगे बच्चे प्रभात फेरी में देशभक्ति के गीत गायेंगे
और पड़ोस में हुए क़त्ल से अनजान ईयरफ़ोन लगाकर कार्टून देखेंगे !!

सही रास्ता निकालता कोई कलाकार
बदहवास शक्ल में खोया-खोया लगता रहेगा तब तक
जब तक हम पाठ नहीं बदलेंगे!

मुस्कानें आग में बदलकर जलाएंगी हमे तब तक
जब तक हम पाठ नहीं बदलेंगे!

हम कब पाठ बदलेंगे ?
हम पथ कब बदलेंगे ???
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कंचन
दहशत में बच्चे पलते हैं !!
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तुम लड़की को सड़क पर दबोच सकते हो
तुम युवा को सड़क पर पीट पीटकर मार सकते हो
तुम प्रेम की सजा में सामूहिक बलात्कार करवा सकते हो

तुम भीड़ बनकर सड़क पर नारे लगा सकते हो
तुम ज्ञानी होकर नये नये कानून बना सकते हो
तुम शांत होकर धर्म की राह दिखा सकते हो 

तुम ज़िन्दा नहीं कर सकते सड़क पर मारे गये लड़के को
तुम ज़िंदा नहीं कर सकते हॉस्पिटल में मरी लड़की को
तुम लौटा नहीं सकते उसकी खोयी अस्मिता को

तुम्हें पता है! तुम मिटा नहीं पाये उसकी पहचान
जिस पर तुमने एसिड डालकर चेहरा बिगाड़ा
तुम मिटा न सके उसकी अंधी आँख में जीते सपने
तुम उसके दिल का प्रेम भी कहाँ मार पाये
जिसे प्रेम करने पर सामूहिक बलात्कार करवाया

तुमने मार डाली अपनी इंसानियत और
अपने बच्चों के दिलों में दहशत भर दी
तुम्हारा पता हम सबको मालूम है
तुम सड़क पर ताकतवर भीड़ हो
और घर के अंदर दर्द में सने लाचार हो

तुम सिर पर उड़ती शातिर चील हो
जिससे अपने बच्चों को बचाना है
भीड़ की दहाड़ के बीच में घुसकर
खोये हुए इंसान का चेहरा उगाना है

नहीं ! यह सब कोरी बकवास और बुदबुदाहट है
सच यह है कि मैं शर्मिंदा हूँ और दहशत में हूँ
अपने बच्चों की फ़िक़र में सुकून की तलाश में हूँ

मैं सड़क पर हूँ ………………………
सड़क पर दहशत है ……………
दहशत में बच्चे पल रहे हैं………
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kanchan
डोर या उड़ान----------------------------- !
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जो उड़ा नहीं सकते 
आसमान में अपनी पतंग ................... 

वे कटी रंगीन पतंग को 
अपनी छत पर
लूट लेने के इंतज़ार में 
दिन भर अपनी नज़रों से उड़ान भरते हैं.…… 

उनकी नज़रों की पतंग
किसी के हाथ में नहीं होती
वह अपनी रौ में उड़ती आती
बिना डोर की रंगीन पतंग
किसी बसन्त के दिन …………

पतंग की ख़ूबसूरती
उसके रंग में है
उसकी डोर में ……

या खुले आसमान में
उसकी उड़ान में !

पतंग जो उड़ते उड़ते
पेड़ में अटके
फट जाए !

कश्ती जो बहते बहते गल जाए!

और दिल
उसका क्या ……………

(पतंग और कश्ती काग़ज़ की
और दिल सीसे का क्यों बनाया )

बसंत ,बरसात और
बरस दर बरस की ये बातें

उनकी बातें !!

या कटी पतंग को देखती
उड़ान भरती नज़र ------------------------
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कंचन